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अकरम नक़्क़ाश के शेर

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जियूँगा मैं तिरी साँसों में जब तक

ख़ुद अपनी साँस में ज़िंदा रहूँगा

मयस्सर से ज़ियादा चाहता है

समुंदर जैसे दरिया चाहता है

इश्क़ इक ऐसी हवेली है कि जिस से बाहर

कोई दरवाज़ा खुले और दरीचा निकले

अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ

उलझा हुआ सा ख़्वाब है ताबीर क्या करें

कुछ तो इनायतें हैं मिरे कारसाज़ की

और कुछ मिरे मिज़ाज ने तन्हा किया मुझे

हज़ार कारवाँ यूँ तो हैं मेरे साथ मगर

जो मेरे नाम है वो क़ाफ़िला कब आएगा

ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी

कोई भी इस जहान में तेरे सिवा नहीं

बार-हा तू ने ख़्वाब दिखलाए

बार-हा हम ने कर लिया है यक़ीं

जैसे पानी पे नक़्श हो कोई

रौनक़ें सब अदम-सबात रहीं

हवा भी चाहिए और रौशनी भी

हर इक हुज्रा दरीचा चाहता है

रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम

रख़्श-ए-ख़याल आज है बे-इख़्तियार फिर

ये पूछ के कौन नसीबों जिया है दिल

मत देख ये कि कौन सितारा है बख़्त में

बदन मल्बूस में शोला सा इक लर्ज़ां क़रीन-ए-जाँ

दिल-ए-ख़ाशाक भी शोला हुआ जलता रहा मैं भी

हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे

सहरा किया कभी कभी दरिया किया मुझे

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