अलीमुल्लाह के शेर
अजब कुछ इश्क़ की ख़ुश-तर है वादी
कि जिस वादी में है हर वक़्त शादी
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यार के दरसन के ख़ातिर जान और तन भूल जा
आँख मुनव्वर देख उस का रंग-ए-गुलशन भूल जा
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इश्क़ के कूचे में जब जाता है दिल करने को सैर
वाँ नहीं मालूम होता रोज़ है या रात है
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तर्क दे इस्लाम को और कुफ़्र सारा दूर कर
छोड़ दे हिर्स-ओ-हवा फ़रज़ंद और ज़न भूल जा
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तालाब इरादे का भरे पल में लबालब
जब यार के दरिया-ए-करम सूँ लहर आवे
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चमन सूँ दिल के आलम को ख़बर नहिं
हमेशा देखते ख़ाकी बदन को
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