आलोक मिश्रा के शेर
मरा हुआ मैं वो किरदार हूँ कहानी का
जो जी रहा है कहानी तवील करते हुए
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एक पत्ता हूँ शाख़ से बिछड़ा
जाने बह कर मैं किस दिशा जाऊँ
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क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझ से
ज़िंदगी ने भी बहुत दूर का रिश्ता रक्खा
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क्यूँ बताता नहीं कोई कुछ भी
आख़िर ऐसा भी क्या हुआ है मुझे
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जाने किस बात से दुखा है बहुत
दिल कई रोज़ से ख़फ़ा है बहुत
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अजीब ख़्वाब था आँखों में नींद छोड़ गया
कि नींद गुज़री है मुझ को ज़लील करते हुए
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क्या ज़रूरत है मुझ को चेहरे की
कौन चेहरे से जानता है मुझे
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बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
रात फिर हम ने अँधेरों में उजाला रक्खा
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ख़ुद-कुशी जैसी कोई बात नहीं
इक ज़रा मुझ को बद-गुमानी है
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मैं भी बिखरा हुआ हूँ अपनों में
वो भी तन्हा सा अपने घर में है
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जब से देखा है ख़्वाब में उस को
दिल मुसलसल किसी सफ़र में है
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सब सितारे दिलासा देते हैं
चाँद रातों को चीख़ता है बहुत
मुझे पता है कि रोने से कुछ नहीं होता
नया सा दुख है तो थोड़ा छलक गया हूँ मैं
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