अलक़मा शिबली के शेर
गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
ज़िंदगी से भी कभी आँखें मिलाओ
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ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
ऐ नक़्श-गरो वुसअत-ए-फ़न कुछ तो दिखाओ
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क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है
जीने का सलीक़ा मुझे बख़्शा है इसी ने
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उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
'शिबली'! जहाँ किसी की भी आवाज़-ए-पा नहीं
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