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अशरफ़ सबूही के रेखाचित्र
घुम्मी कबाबी
घुम्मी कबाबी को कौन नहीं जानता। सारा शहर जानता है। जब तक ये ज़िंदा रहा कबाबों की दुनिया में इससे ज़्यादा दिलचस्प कोई कबाबी न था। जामा मस्जिद की सीढ़ियों से लेकर उधर दिल्ली दरवाज़े तक और इधर हबश ख़ां की फाटक तक उसके कबाब चटख़ारे ले-ले कर खाए जाते थे।
मिर्ज़ा चपाती
ख़ुदा बख़्शे मिर्ज़ा चपाती को, नाम लेते ही सूरत आँखों के सामने आगई। गोरा रंग, बड़ी हुई उबली हुई आँखें, लंबा क़द शानों पर से ज़रा झुका हुआ। चौड़ा शफ़्फ़ाफ़ माथा। तैमूरी डाढ़ी, चंगेज़ी नाक, मुग़लई हाड़। लड़कपन तो क़िले की दरोदीवार ने देखा होगा। जवानी देखने वाले
मीर बाक़र अली
ग़दर के बाद से दिल्ली पर कुछ ऐसी साढ़ सती आई कि अव्वल तो पुराने घरों का नाम-ओ-निशान ही मिट गया। न मकान रहे न मकीं। सारा शहर ही बारह बाट हो गया। और जिनकी नाल नहीं उखड़ी वो पेट की ख़ातिर तितर बितर हुए। रोटी की तलाश में जिसको देखो ख़ाना बदोश। बारह बरस हुए
नियाज़ी ख़ानम
अल्लाह बख़्शे नियाज़ी ख़ानम को अजीब चहचहाती तबीयत पाई थी। बचपन से जवानी आई, जवानी से अधेड़ हुईं। मजाल है जो मिज़ाज बदला हो। जब तक कुंवारी रहीं, घरवालों में हंसती कली थीं। ब्याही गईं तो खिला हुआ फूल बन कर मियां के साथ वो चुहलें कीं कि जो सुनता फड़क उठता।
गंजे नहारी वाले
आह दिल्ली मरहूम जब ज़िंदा थी और उसकी जवानी का आलम था। सुहाग बना हुआ था, उस पर क्या जोबन होगा। अब तो न वो रही न उसके देखने वाले रहे। कल्लू बख़्शू के तकिए पर सोते हैं। अगली कहानियां कहने वाला तो क्या कोई सुनने वाला भी नहीं रहा। ग़दर ने ऐसी बिसात उलटी कि
मल्लन नाई
मल्लन नाई बेचारे की रूह न शरमाए बड़े मज़े का आदमी था। औज़ारों से ज़्यादा उसकी ज़बान चलती थी। यूँ तो सारे नाई बातूनी होते हैं। शेख़ सादी ने भी गुलिस्तान में उनकी तारीफ़ में एक हिकायत लिख डाली है। अलिफ़-लैला में बोबक हज्जाम का क़िस्सा पढ़ा होगा। मगर उसके अंदाज़
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