अज़हर हाश्मी सबक़त
ग़ज़ल 16
अशआर 15
उसी पे सब्र है मुझ को हर एक दौर यहाँ
बहार आने से पहले ख़िज़ाँ से गुज़रा है
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कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का
लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है
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बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों
जीने के लिए मर गए इंसान हज़ारों
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मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी
भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है
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सज्दे का सबब जान के शीरीं है परेशाँ
फ़रहाद ने कह डाला के रब ढूँड रहा हूँ
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