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अज़ीज़ वारसी

1924 - 1989 | दिल्ली, भारत

अज़ीज़ वारसी

ग़ज़ल 38

अशआर 13

जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं

हक़ीक़त में उसी को ज़ीस्त का हासिल समझते हैं

तुम पे इल्ज़ाम जाए सफ़र में कोई

रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा करो

तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा

फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा

दिल में अब कुछ भी नहीं उन की मोहब्बत के सिवा

सब फ़साने हैं हक़ीक़त में हक़ीक़त के सिवा

मिरी तक़दीर से पहले सँवरना जिन का मुश्किल है

तिरी ज़ुल्फ़ों में कुछ ऐसे भी ख़म महसूस करता हूँ

पुस्तकें 11

ऑडियो 7

उस ने मिरे मरने के लिए आज दुआ की

ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ

जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं

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