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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Baqar Mehdi

1927 - 2006 | Mumbai, India

Radical Urdu critic who wrote unconventional poetry.

Radical Urdu critic who wrote unconventional poetry.

Quotes of Baqar Mehdi

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अदब की तख़लीक़ एक ग़रीब मुल्क में पेशा भी नहीं बन सकती और इस तरह बेशतर अदीब-ओ-शाइ'र इतवारी‏‎ ‎मुसव्विर (SUNDAY PAINTERS‏‎) की ज़िंदगी बसर करते हैं, या'नी ज़रूरी कामों से फ़ुर्सत मिली तो पढ़ लिख लिया।

मआ'शी क़ुव्वतें उन पोशीदा धारों की तरह हैं जो अंदर बहते रहते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता किनारों को काटते हुए ‎अपने नई ‎‏जगह बनाते जाते हैं।

जदीदीयत ने दुनिया को जन्नत-अर्ज़ी बनाने का बीड़ा उठा कर जहन्नुम नहीं बनाया है जैसा कि तरक़्क़ी-पसंदी ने ‎किया है।‏

हम आज के दौर को इसलिए तनक़ीदी दौर कहते हैं कि तख़लीक़ी अदब की रफ़्तार कम है और मे'यारी चीज़ें नहीं ‎लिखी जा रही ‎‏हैं।

इंसानी तारीख़ एक मआ'नी में इक़्तिदार की जंग की तारीख़ कही जा सकती है।

इस्तिलाहें अपने मआ'नी खोती हैं, ये एक तारीख़ी हक़ीक़त है। मैं इससे इंकार नहीं करना चाहता। लेकिन ये भी ‎तारीख़ी ‎‏हक़ीक़त है कि उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़हूम देकर फिर तर-ओ-ताज़ा किया जाता है और इस तरह ख़िज़ाँ ‎और बहार के मौसम इस्तिलाहों ‎‏की दुनिया में भी आते रहते हैं।

अदब और ज़िंदगी के रिश्ते इतने मुस्तहकम हो चुके हैं कि सियासी तबदीलियों का अदब पर असर ना-गुज़ीर है।

अब ग़ालिब उर्दू में एक सनअ'त‏‎ Industry की हैसियत इख़्तियार कर चुके हैं। ये इतनी बड़ी और फैली हुई नहीं ‎जितनी कि ‎‏यूरोप और अमरीका में शेक्सपियर इंडस्ट्री। हाँ आहिस्ता-आहिस्ता ग़ालिब भी ‎‏High Cultured Project ‎में ढल‏‎ रही है। ये कोई शिकायत की बात नहीं है। हर ज़बान-ओ-अदब में एक एक शाइ'र या अदीब को ये ए'ज़ाज़ ‎मिलता रहा है कि ‎‏उसके ज़रिए' से सैकड़ों लोग बा-रोज़गार हो जाते हैं।

आज़ादी की ख़्वाहिश ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं पैदा होती। इसके लिए बड़ा ख़ून पानी करना पड़ता है, वर्ना अक्सर लोग उन्हीं ‎राहों पर चलते‏‎ रहना पसंद करते हैं जिन पर उनके वालिदैन अपने नक़्श-ए-पा छोड़ गए हैं।

पहली तफ़सीली मुलाक़ात कितनी सरसरी होती है। रस्मी जुमले टूट टूट कर रब्त-ए-निहाँ की तख़लीक़ करने की ‎नाकाम सी कोशिश ‎‏करते हैं और हम समझते हैं कि एक दूसरे से वाक़िफ़ हो रहे हैं। जब कि हम बड़े ज़ब्त से काम ले ‎रहे होते हैं। ‎‏इसके ये मआ'नी हुए कि ग़ैर-शऊ'री तौर से हम नहीं चाहते कि पहला तअस्सुर ख़राब पड़े। ज़िंदगी के ‎बाज़ारी माहौल ने ‎‏हमें इतना मस्ख़ कर दिया है कि एक दूसरे पर अयाँ होने के बावजूद आधे छिपे हुए ग़ाएब रहते हैं।

उर्दू तनक़ीद की ये बद-नसीबी रही है कि इसका आग़ाज़ किसी बड़ी असास से नहीं हुआ और ही हमारे अदब में ‎कोई तनक़ीदी‏‎ रिवायत का सिलसिला मिलता है जिससे कड़ियाँ मिलाकर नक़्क़ादों ने नक़्द-ए-अदब के उसूल ‎मुत'अय्यन किए हों। यही वज्ह है कि अभी‏‎ चंद बरसों तक हमारे तरक़्क़ी-पसंद और जदीद अदब के नक़्क़ाद उसूल-‎ए-नक़्द-ए-अदब की तशकील और ता'बीर में उलझे हुए हैं।‏

शाइ'र और अदीब के अफ़कार-ओ-एहसासात को कभी भी किसी सियासी लाइन का ग़ुलाम नहीं बनाया जा सकता ‎और जब भी इसकी‏‎ कोशिश की गई है, अदबी बोहरान का 'सैलाब-ए-बला' अपने तमाम तबाह-कुन नताइज को लिए ‎हुए आया है।

कल तक अदब चंद बहुत ही बरगुज़ीदा हस्तियों की जागीर था और वही लोग इस पर बहस के अहल समझे जाते थे। ‎आज अदबी ‎‏ज़ौक़ आम हो चला है और अब तमाम उलूम में माहिर हुए बग़ैर भी अदबी राय रखी जा सकती है और ‎क़ारी की बातों को ध्यान ‎‏से सुना भी जाने लगा है। इन हालात में अदबी ज़ौक़ को ज़ियादा बेहतर और बरतर बनाने ‎का काम नक़्क़ादों के अ'लावा कोई और पूरी‏‎ ख़ूबी से नहीं कर सकता है। इसलिए नक़्क़ादों के लिए ये बहुत ज़रूरी है ‎कि वो अच्छे अदबी ज़ौक़ को आम करने की मुहिम में ‎‏पेश-पेश रहें।

नक़्क़ाद का काम सिर्फ तनक़ीदी तराज़ू में नापना तौलना ही नहीं है बल्कि अपनी आवाज़ के ज़रिए' अदीबों में ‎हरकत-ओ-अमल की वो क़ुव्वत‏‎ भी पैदा करनी है जो तख़लीक़-ए-अदब की बाइस हो सके।‏

फ़सादात में ज़ख़्मी होना मेरे लिए बहुत बड़ा तजरबा था। उसने मुझे वो बसीरत बख़्शी कि आज तक मैं तंग-नज़री ‎का‏‎ शिकार नहीं हो सका हूँ।

जदीदीयत ता'मीर और तख़रीब की पुर-फ़रेब इस्तलाहों को रद्द करती है, वो अदब को सबसे पहले ज़ात का ‎आईना-दार क़रार देती ‎‏है लेकिन ज़ात को हर्फ़-ए-आख़िर नहीं समझती इसलिए कि जदीदीयत हर्फ़-ए-आख़िर ‎की सिरे से क़ाइल नहीं।

जिस मुल्क में जमहूरियत की जड़ें गहरी और देर-पा हों वहाँ की फ़िज़ा में अदब-ओ-तहज़ीब की तरक़्क़ी के ‎इमकानात भी ज़ियादा‏‎ नहीं होते।

तरक़्क़ी-पसंदी इंसानी ज़िंदगी को हसीन से हसीन-तर बनाने की कोशिश में तंग से तंग-तर करती गई जैसा कि ‎मज़ाहिब‏‎ के साथ हश्र हुआ कि वो ख़ुदा के बंदों को राह-ए-रास्त पर लाने के लिए आए थे मगर आहिस्ता-आहिस्ता ‎इंसानों पर उसके ‎‏दरवाज़े बंद होते गए और ये छोटी दुनिया बहुत से छोटे-छोटे फ़िर्क़ों में बदल गई।‏

आदमी जज़्बात को मुन'अकिस करने के बा-वजूद आईने से मुशाबेह नहीं है और यहीं से सारी पेचीदगी शुरू' है।

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