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Bhagwan Das Ejaz's Photo'

भगवान दास एजाज़

1932 - 2020 | दिल्ली, भारत

मशहूर शायर, अपने दोहों के लिए जाने जाते हैं

मशहूर शायर, अपने दोहों के लिए जाने जाते हैं

भगवान दास एजाज़ के दोहे

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अकस्मात होने लगी फूलों की बरसात

जब सीमाएँ प्यार की टूटें आधी रात

हम इस घर में हैं घिरे जिस के आँख कान

निकल भागना भी कठिन दाँतों बीच ज़बान

ख़ुद ही अपनी मौत का बाँधे है सामान

अनजाने हैं रास्ते राही है नादान

जल गई अपनी आग से जंगल की सब घास

धरती तब दुल्हन बने जब हो सावन मास

हाँ भई वो भी था समय भोले भाले लोग

सुनते थे कि रात में चिड़िया चुगती चोग

मंज़िल से साए की तरह पीछे पीछे जाए

खुले किवाड़ों जब कोई अपना दर खटकाए

कठिन राह उपकार की इतना रहे ख़याल

पगड़ी ज़रा सी भूल पर देते लोग उछाल

दोष पराए सर मढ़े भीतर बाहर रोए

हर कोई अपनी राह में आप ही काँटे बोए

शहनाई की जब कहीं कान पड़े आवाज़

जल बिन मछली की तरह तड़प उठे 'एजाज़'

ऊपर जा कर कट गया मैं पतंग मानिंद

उतरा जैसे आँख में कोई मोतियाबिंद

लगी आत्मा कोसने डसने लगा ख़याल

क्यों दूजे के दोष को इतना दिया उछाल

कान पकड़ तौबा किए ऐसी बकरी पाल

दूध दिया सो क्या दिया दिया मेंगनी डाल

दग़ाबाज़ मक्कार के और देख अंदाज़

हाँ रस्सी तो जल गई गए बल 'एजाज़'

आसमान पर छा गई घटा घोर-घनगोर

जाएँ तो जाएँ कहाँ वीराने में शोर

कहीं तुझे लग जाए परदेसन की हाए

साजन अब लौट के सावन बीता जाए

सो जा सोने दे मुझे मत कर नींद ख़राब

दाने अपनी गाँठ के बिना भूक मत चाब

तू मेरी अर्धांगिनी ली मैं ने सौगंध

आँसू टपके प्यार के कर ली आँखें बंद

बेगानों से क्या गिला घर में है ग़द्दार

आस-पास रखिए नज़र आँखें रखिए चार

जो देखा समझा सुना ग़लत रहा मीज़ान

और निकट ज़िंदगी हो तेरी पहचान

सखी बहुत ओले पड़े बरखा के उपरांत

हुई कम बिर्हा अगन तन-मन और अशांत

हम जग में कैसे रहे ज़रा दीजिए ध्यान

रात गुज़ारी जिस तरह दुश्मन-घर मेहमान

मौसम अच्छा है इसे और अच्छा कर यार

बोले चेहरा देख कर अभी नहीं आसार

जुगनू चमके आस के उजली हो गई शाम

पंछी उन के गाँव से लाया है पैग़ाम

भीतर क्या क्या हो रहा दिल कुछ तो बोल

एक आँख रोए बहुत एक हँसे जी खोल

थम जा रे बदरा करूँ तेरी जय-जय-कार

पी घर आवें तो बरस बरस मूसला-धार

कहने लगे अब आइए सर पर है त्यौहार

घर मेरा नज़दीक है तारों के उस पार

मर गई मारे लाज के पूछा तोड़ा मौन

चूहों को बिल खोदना सिखलाता है कौन

वो निर्लज्ज निर्दयी मुझे समझे धोबी घाट

हाथी नाचे खाट पे खाट पड़े चौपाट

महानगर में आन के भूले दुआ-सलाम

हम-साया जाने नहीं हमसाए का नाम

अभी मिलन को साजना दिन ना बीते चार

सीने पर रख कर शिला दो दिन और गुज़ार

दुनिया थक गई पूछते रहे सदा हम मौन

समझेगा तेरे सिवा मन की भाषा कौन

वो चंचल कल शाम को लिए हाथ में हाथ

लोक लाज को त्याग कर नाची मेरे साथ

सीने के बल रेंग कर सीमाएँ कीं पार

मैं बौनों के गाँव से गुज़रा पहली बार

प्यासे होंटों को मिली ठंडी हवा से आँच

दो जिस्मों की आँच से लगा पिघलने काँच

दुनिया से ओझल रहे लिया लबादा ओढ़

सारे तन पर छा गया मन का काला कोढ़

माला जपता नाम की वो दीवाना शाम

अच्छा लगे पुकारता मीरा मीरा नाम

कहीं गगन के पार हूँ कहीं बेच पाताल

मेरे चारों ओर है तस्वीरों का जाल

होगी इक दिन घर मिरे फूलों की बरसात

मैं पगला इस आस में हँसता हूँ दिन रात

बातें होंगी प्यार की मिला आज एकांत

नैन उतारें आरती मन का संशय शांत

झोंकी तोता-चश्म ने मिरी आँख में धूल

बंद लिफ़ाफ़े में मुझे उस ने भेजे शूल

नैन चैन मौसम समाँ सब कुछ लेता छीन

ये घर अपना है हमें होता नहीं यक़ीन

मन अपना बहरूपिया धारे कितने रूप

नटखट पहचाने नहीं चढ़ती ढलती धूप

अभी लिफ़ाफ़ा बंद था पढ़ता करता ग़ौर

जो भेजा गुम हो गया लिखो एक ख़त और

जोगी आया द्वार पर ख़ाली लौटा काल

रोगी माटी चाट कर उठ बैठा तत्काल

भांडा सब के सामने दिया भाग ने छोड़

ओले अपने घर पड़े बरखा चारों और

नाकों चबवाए चने हम ने कितनी बार

हम-साया बे-शर्म है जब देखो तय्यार

रात बिताएँगे वहीं आए थे मन ठान

तुम कह कर तो देखते हम झट जाते मान

आज मुझी पर खुल गया मेरे दिल का राज़

आई है हँसते समय रोने की आवाज़

ढिग ढलान रस्ता विकट सावधान अंजान

गाड़ी तेरी काँच की है लोहे का सामान

मुझे थमा कर झुनझुना लोग ले गए माल

भलमंसाई में रहे हम ठन-ठन गोपाल

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