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देवेन्द्र सत्यार्थी की कहानियाँ
नए देवता
तरक्की-पंसद अदीबों में से एक नफ़ासत हसन ने अपनी यहाँ दावत की हुई है। दावत में उसके बहुत से साथी आए हुए हैं। नफ़ासत हसन तरक़्क़ी-पसंद अदीब है, लेकिन जिस मह्कमे में वह नौकरी करता है उसके ख़्यालों के बिल्कुल उलट है। वैसे उसी नौकरी से वह अपने यहाँ इस दावत का इंतिज़ाम कर पाया है। खाने के दौरान अदब पर बातचीत चल निकलती है। एक दूसरे अदीब अंग्रेज़ी लेखक समरसेट माम को अपना पसंदीदा लेखक बताते हैं। मेज़बान भी समरसेट को लेकर अपनी दिवानगी ज़ाहिर करता है। इसको लेकर उन दोनों के बीच खासी नोक-झोंक होती है और इसी नोक-झोंक में समरसेट माम उनका नया देवता बनकर सामने आता है।
अन्न देवता
अकाल पीड़ित एक गाँव की कहानी है। गाँव का निवासी चिन्तू अन्न को लेकर पौराणिक कहानी सुनाता है। कैसे ब्रह्मा ने अन्न को धरती की ओर भेजा था। हालांकि फ़िलहाल उनके पास अन्न पूरी तरह ख़त्म है और बादल है कि लाख उम्मीदों के बाद भी एक बूंद बारिश नहीं बरसा रहे हैं। लोग एक-दूसरे से उधार लेकर जैसे-तैसे अपना पेट भर रहे हैं। गाँव के मुखिया और मुंशी भी गरीबों में धान बाँटते हैं। इस सबसे दुखी चिन्तू कहता है कि अन्न अब अमीरों का हो गया है। वह ग़रीबों के पास नहीं आएगा। वहीं उसकी पत्नी को उम्मीद है कि भले ही अन्न अमीरों के पास चला गया हो लेकिन एक दिन उसे अपने घर की याद ज़रूर आएगी, वह लौटकर अपने घर (गरीबों के पास) ज़रूर आएगा।
बटाई के दिनों में
ज़ालिम तभी तक हमलावर रहता है जब तक आप ख़ामोश रहकर ज़ुल्म सहते हैं। बँटाई के दिनों में संतो दीवान साहब को फ़सल में से उसका हिस्सा देने से मना कर देता है। संतो जब बँटाई न देने की बात करता है तो कुछ लोग उसकी मुख़ालिफ़त करते हैं। लेकिन वह डटा रहता है। धीरे-धीरे लोग भी उसकी मुहिम में शामिल हो जाते हैं। पूरा गाँव बँटाई न देने के लिए एक जुट हो जाता है। गाँव में पुलिस आती है। लोगों पर लाठी चार्ज होती है। तो भी लोग अपने हक़ की माँग से पीछे नहीं हटते हैं। आख़िर में पुलिस संतो को गिरफ़्तार कर लेती है, पुलिस की बे-तहाशा मार खाने के बाद भी वह पीछे हटने को तैयार नहीं होता और कहता है... बँटाई के दिन गए।
राजधानी को प्रणाम
यह एक ऐसे लड़के की कहानी है जो शहर के किनारे अपने बाबा के साथ रहता है और हर दूसरे-तीसरे दिन अपने खोए हुए बाप को ढूँढ़ने के लिए शहर जाता है। उसने सुन रखा है कि उसका बाप बहुत बड़ा कवि है और शहर में ही कहीं रहता है। उन दिनों आज़ादी की चर्चा चल रही थी। वह अपने बाबा के साथ मिलकर शहर के किनारे के अपने कोठे को आज़ादी की देवी के स्वागत के लिए तैयार करता है। मगर शाम को बाबा को साथ लेकर वह अपने एक दोस्त के छगड़े में बैठकर गाँव चला जाता है। गाँव के किनारे पर उन्हें बहुत से लोगों की भीड़ नज़र आती है। पता चलता है कि शहर से कुछ सत्ताधारी लोग आए हैं जो राजधानी के विस्तार के लिए गाँव की ज़मीन चाहते हैं। वह देखता है कि उन लोगों में उसका गीतकार पिता भी शामिल है।
जुलूस
यह कहानी सरस्वती देवी के एक जुलूस के गिर्द घूमती है, जो हर साल निकलता है। जुलूस के दौरान सभी दरवाज़े सजे हुए हैं। जुलूस में सजे हुए हाथी, घुड़सवार और प्यादे सभी कुछ शामिल हैं। इसके साथ ही जुलूस जैसे-जैसे आगे बढ़ता है कहानी प्राचीन इतिहास, संस्कृति, बौद्ध धर्म, सल्तनत काल, नवाब-शाही और उसमें तवाएफ़ों की ज़िंदगी की भूमिका पर चर्चा करती हुई आगे बढ़ती है।
रफ़ूगर
यह काव्यात्मक शैली में लिखी गई कहानी है। इसमें भारत की संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, लोगों का एक दूसरे के साथ मिलना और एक दूसरे का सहयोग करना दिखाया गया है। साथ-साथ रफू़गर की कहानी भी चलती रहती है जो बताता रहता है कि वह कहाँ है, क्या कर रहा है और किस लिए कर रहा है। यह कहानी अपनी शैली और विषय को लेकर एकदम अलग, नए और सुखद अनुभव का एहसास कराती है।
और बंसुरी बजती रही
यह प्राकृतिक सौंदर्य और दुनिया में बसने वाले जीवों के स्वभाव को बयान करने वाली कहानी है। जंगल में अहीर बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे बैठा बाँसुरी बजा रहा है। उसकी बाँसुरी की तान सुन कर सभी पशु-पक्षी झूमने लगते हैं। साँप भी अपने बिल से निकल आता है और उसकी बाँसुरी की धुन पर नाचने लगता है। दूर खेत में एक किसान औरत कोई गीत गाती है और बताती है कि साँप ने उसकी बहन को डस लिया है। साँप उसकी यह बात सुनकर अपनी साँपन के मारे जाने का ख़्याल करता है और फिर अपनी फ़ितरत को याद कर अहीर को भी डस लेता है। इसके बाद वह सभी साँपों को दावत देता है और अपनी साथियों को खु़द का अस्तित्व बचाए रखने के लिए एक योजना सुझाता है, जिसे आगे चलकर मानव जाति भी अपना लेती है।
जन्म भूमि
विभाजन के दिनों की एक घटना पर लिखी कहानी। हरबंसपुर के रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी काफ़ी देर से रुकी हुई है। ट्रेन में भारत जाने वाली सवारी लदी हुई है। उन्हीं में एक स्कूल मास्टर है। उसके साथ उसकी बीमार पत्नी, एक बेटी, एक बेटा और एक दूध पीता बच्चा है। वो बच्चे प्यासे हैं, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पानी नहीं दिला सकता, क्योंकि पानी का एक गिलास चार रुपये का है। गाड़ी चलने का नाम नहीं लेती। उसके चलने के इंतिज़ार में सवारियाँ हलकान हो रही हैं। मास्टर की पत्नी की तबियत ख़राब होने लगती है तो वह उसके साथ स्टेशन पर उतर जाता है, जहाँ उसकी पत्नी का देहांत हो जाता है। अपनी पत्नी की लाश को स्टेशन पर छोड़कर मास्टर यह कहता हुआ चलती गाड़ी में सवार हो जाता है, वह अपनी जन्मभूमि को छोड़कर जाना नहीं चाहती।
ताँगे वाला
एक ताँगे वाले की कहानी, जो अपनी बीवी को गोटे का दुपट्टा तो नहीं दिला सका। मगर ईद के दिन उसने अपनी पसंद का एक घोड़ा ख़रीद लिया। उसकी बीवी मर गई और वह रंडुवा अपने घोड़े के साथ रहने लगा। वह उससे बहुत मोहब्बत करता था और उसके खान-पान का पूरा ख़्याल रखता था। जैसे-जैसे वक़्त बीता उसे तंगदस्ती का सामना करना पड़ा। तंगी के दिनों में वह अपना सारा दुख दर्द अपने घोड़े को ही सुना देता। घोड़ा भी अपने भाव-भंगिमा से ज़ाहिर कर देता कि वह अपने मालिक के दर्द को समझ रहा है। फिर एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे साईं के क़र्ज की क़िस्त देने के लिए घोड़े के साथ-साथ खु़द भी फ़ाक़ा करना पड़ा।
नये धान से पहले
यह कहानी अकाल से पीड़ित एक किसान महिला की है जो एक वक़्त के खाने के लिए लंगर की लाईन में लगी है। उसकी गोद में उसका सूखे हाथ-पैर और बड़े पेट वाला एक छोटा बेटा भी है। भूख से तड़पते वह अपने उस मासूम बच्चे को बार-बार जल्द खाना मिलने की उम्मीद जगाती है और साथ ही साथ उसके बारे में भी सोच रही है जिसकी वजह से उसकी यह हालत हो गई है। जब अकाल पड़ा, तब वह गर्भवती थी। उन दिनों देवता, मुंशी, अधिकारी और दूसरे लोगों ने मिलकर गाँव के लोगों को इस तरह लूटा कि उनके पास बोने के लिए तो क्या खाने के लिए भी धान नहीं बचा था।
मंदिर वाली गली
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो बनारस घूमने जाता है। वहाँ एक व्यापारी के घर रुकता है। शहर घूमते हुए उसे मंदिर वाली गली सबसे ज्यादा पसंद आती है। उस गली के प्रति उसका लगाव देखकर व्यापारी उसके रहने का इंतिज़ाम मंदिर वाली गली में ही करने लगता है। मगर वह इनकार कर देता है। 25 साल बाद वह फिर बनारस लौटता है तो देखता है कि उस व्यापारी की नई पीढ़ी उसी मंदिर वाली गली में रह रही होती है।
क़ब्रों के बीचों बीच
बंगाल के अकाल पर लिखी गई एक मार्मिक कहानी। कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र नेताओं का एक समूह राज्य भर में घूम रहा है और अकाल से मरने वाले लोगों का आंकड़ा इक्ट्ठा कर रहा है। इसके साथ ही उन्हें उम्मीद है कि अमीर राज्यों से वहाँ अनाज पहुँचेगा। लोगों को खाना मिलेगा और मुफ़्त लंगर खूलेंगे। सातों साथी गाँव-गाँव घूम रहे हैं और रास्ते में मिलने वाली लाशों, गाँवों और दूसरे दृश्यों को देखकर उनके जो ख़्यालात हैं वह एक-दूसरे से साझा करते चलते हैं। वह एक ऐसे गाँव में पहुँचते हैं जहाँ केवल दस लोग जीवित हैं लोगों के अंदर इतनी भी ताक़त नहीं है कि वह मुर्दों को दफ़्न कर सकें। इसलिए वह उन्हें दरिया में बहा देते हैं। छात्रों का यह समूह एक क़ब्रिस्तान में पहुँचता है जहाँ उन्हें एक बुढ़िया मिलती है। बुढ़िया के सभी बेटे मर चुके हैं और वह क़ब्र खोद-खोद कर थक गई है। समूह में शामिल गीता बुढ़िया से बात करती है और वापस लौटते हुए उसे लगता है कि बुढ़िया के बेटे उनके आगे चल रहे हैं। किसी फोड़ों की तरह... कब्रों के बीचों-बीच।
शब-नुमा
बत्तियाँ जल चुकी हैं। चकले में रात ज़रा पहले ही उतर आती है। शबनुमा एक चालीस बयालीस बरस की औरत अपने गाल रंग कर, होंट रंग कर कुर्सी पर आ बैठी है। धीरे-धीरे उसके होंट हिलते हैं, कुछ न कुछ गुनगुना रही होगी। ब्याह में क्या धरा था? यहाँ तो रोज़ ब्याह होता
पेरिस का आदमी
यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक कहानी है कि इसे जितनी बार पढ़ा जाए, हर बार इसमें एक नई बात निकलकर सामने आती है। एक शख़्स, जो पेरिस से भारत आया हुआ है। वह पहले कुछ अरसा बनारस में रहता है और फिर दिल्ली आ जाता है। वह अपनी साथी के साथ बैठा फ्रांस, वहाँ की राजनीति, क्रांति और विचारधारा को लेकर बात करता है। इस गुफ़्तुगू में वह बहुत सी ऐसी बात बताता है कि शायद ही किसी ने उससे पहले सुनी हो। इस कहानी की एक विशेषता यह है कि इसे समझने के लिए आपको कुछ वक़्त देना होगा। साथ ही खु़द को भी।
परियों की बातें
मैं अपने दोस्त के पास बैठा था। उस वक़्त मेरे दिमाग़ में सुक़्रात का एक ख़याल चक्कर लगा रहा था...क़ुदरत ने हमें दो कान दिये हैं और दो आंखें मगर ज़बान सिर्फ़ एक ताकि हम बहुत ज़्यादा सुनें और देखें और बोलें कम, बहुत कम! मैं ने कहा “आज कोई अफ़्साना सुनाओ,
सतलज फिर बिफरा
यह कहानी एक ऐसी लड़की के गिर्द घूमती है जो सतलुज नदी को देखने आती है। मगर जब वह आती है तो सतलुज अपने पूरे उफान पर होता है। उस उफान को देखकर गाँव के सभी लोग उसके किनारे पर आकर जमा हो जाते हैं और पीर का इंतिज़ार करने लगते हैं जिसके आते ही सतलुज शांत हो जाती थी। मगर इस दौरान उस लड़की और उसके साथी के बीच संस्कृति और इतिहास को लेकर काफी वाद-विवाद होता है और जब तक पीर आता है जब तक सतलुज पूरी तरह बिफर जाती है। पीर सतलुज के किनारे खड़े होकर उसे वापस जाने की दुआएँ करता है। सतलुज वापस जाने लगती है और वह अपने साथ पीर को भी ले जाती है।
सलाम लाहौर
यह आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी हुई कहानी है, जिसमें लेखक ने अपनी लाहौर यात्रा का ज़िक्र किया था। चार महीने की उस यात्रा में लेखक ने कराची और लाहौर की सभी गलियों को देखा, वहाँ के अदीबों, लेखकों और शायरों से मिला। वापसी में जब गाड़ी ने वाघा बॉर्डर पार किया तो उसे ऐसा लगा जैसे वह हिंदुस्तान से पाकिस्तान में दाखिल हो रहा है। उसे एक लम्हे के लिए भी यह महसूस नहीं हुआ कि भारत-पाकिस्तान दो अलग मुल्क हैं।
ब्रह्मचारी
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो अमरनाथ यात्रा पर निकले एक जत्थे में शामिल है। उस जत्थे में जय चंद, उसका क्लर्क जियालाल, दो घोड़े वाले और एक लड़की सूरज कुमारी भी शामिल है। चलते हुए घोड़े वाले गीत गाते रहते हैं और उनके गीत सुनकर लड़की लगातार मुस्कुराती रहती है। यात्री सोचता है कि वह उसे देखकर मुस्कुरा रही है, मगर वह तो ब्रह्मचारी है। एक जगह पड़ाव पर उसकी जत्थे के एक साथी से ब्रह्मचर्य को लेकर शर्त लग जाती है और वह तंबू से बाहर आकर ज़मीन पर लेट जाता है। खुले आसमान में सोते हुए उसे सूरज कुमारी को लेकर तरह-तरह के ख़्याल आते रहते हैं और वह कहता रहता है कि वह तो ब्रह्मचारी है।
लाल धर्ती
हिंदू समाज में माहवारी को किसी बीमार की तरह समझा जाता है और माहवारी आने वाली लड़की को परिवार से अलग-थलग रखा जाता है। लेकिन यह कहानी इसके एकदम उलट है। एक ऐसे समाज की कहानी जो है तो भारतीय है लेकिन वह माहवारी को बीमारी नहीं बल्कि अच्छा शगुन मानता है। उन दिनों आंध्र प्रदेश अलग राज्य नहीं बना था, हालांकि उड़ीसा के अलग हो जाने पर उसके तेलुगु इलाके आंध्र प्रदेश में मिला दिए गए थे। हीरो आंध्र प्रदेश में अपने एक दोस्त के घर ठहरता है। दोस्त की दो बेटियाँ हैं और उनमें से बड़ी वाली को उन्हीं दिनों पहली बार माहवारी आती है। बेटी के महावारी आने पर वह तेलुगू परिवार किस तरह उत्सव मनाता है वह जानने के लिए पढ़िए यह कहानी।
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