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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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ग़ज़नफ़र

1953 | अलीगढ़, भारत

शायर, आलोचक और कथा लेखक, संवेदनशील सामाजिक विषयों पर उपन्यास और कहानी लेखन के लिए मशहूर

शायर, आलोचक और कथा लेखक, संवेदनशील सामाजिक विषयों पर उपन्यास और कहानी लेखन के लिए मशहूर

ग़ज़नफ़र के शेर

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हमारे हाथ से वो भी निकल गया आख़िर

कि जिस ख़याल में हम मुद्दतों से खोए थे

रफ़्ता रफ़्ता आँखों को हैरानी दे कर जाएगा

ख़्वाबों का ये शौक़ हमें वीरानी दे कर जाएगा

दफ़्तर में ज़ेहन घर पे निगह रास्ते में पाँव

जीने की काविशों में बदन हाथ से गया

हर एक रात कहीं दूर भाग जाता हूँ

हर एक सुब्ह कोई मुझ को खींच लाता है

बच के दुनिया से घर चले आए

घर से बचने मगर किधर जाएँ

मैं उस के झूट को भी सच समझ के सुनता हूँ

कि उस के झूट में भी ज़िंदगी की क़ुव्वत है

मैं ऐसा नर्म तबीअत कभी था पहले

ज़रूर लम्स कोई उस का छू गया मुझ को

हम कि साहिल के तसव्वुर से सहम जाते हैं

लोग किस तरह समुंदर में उतरते होंगे

जाने किस तरह बिस्तर में घुस कर बैठ जाती हैं

वो आवाज़ें जिन्हें हम रोज़ बाहर छोड़ आते हैं

तुम्हारे होते हुए लोग क्यूँ भटकते हैं

कहीं पे ख़िज़्र नज़र आए तो सवाल करूँ

कल तक जो शफ़्फ़ाफ़ थे चेहरे आवाज़ों से ख़ाली थे

आड़ी-तिरछी सुर्ख़ लकीरें उन पर भी अब देखोगे

ज़ेहन के ख़ानों में जाने वक़्त ने क्या भर दिया

बे-सबब होने लगी इक एक से अन-बन मिरी

अजीब बात हमारा ही ख़ूँ हुआ पानी

हमीं ने आग में अपने बदन भिगोए थे

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