हयात लखनवी के शेर
ये इल्तिजा दुआ ये तमन्ना फ़ुज़ूल है
सूखी नदी के पास समुंदर न जाएगा
अब दिलों में कोई गुंजाइश नहीं मिलती 'हयात'
बस किताबों में लिक्खा हर्फ़-ए-वफ़ा रह जाएगा
चेहरे को तेरे देख के ख़ामोश हो गया
ऐसा नहीं सवाल तिरा ला-जवाब था
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सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा
एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा
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ख़ुदा के वास्ते मोहर-ए-सुकूत तोड़ भी दे
तमाम शहर तिरी गुफ़्तुगू का प्यासा है
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ये जज़्बा-ए-तलब तो मिरा मर न जाएगा
तुम भी अगर मिलोगे तो जी भर न जाएगा
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मुद्दआ हम अपना काग़ज़ पर रक़म कर जाएँगे
वक़्त के हाथों में अपना फ़ैस्ला रह जाएगा
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हर सदा से बच के वो एहसास-ए-तन्हाई में है
अपने ही दीवार-ओ-दर में गूँजता रह जाएगा
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