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इन्तिज़ार हुसैन के उद्धरण
मेरी दिक़्क़त ये है कि मैं ख़िलक़त के हाफ़िज़ा को मुहक़्क़िक़ों की तहक़ीक़ से बड़ी सच्चाई जानता हूँ। ख़िलक़त का हाफ़िज़ा झूट नहीं बोलता, इज़ाफ़ा और रंग आमेज़ी अलबत्ता कर देता है। इस अमल में शक्लें मस्ख़ नहीं होतीं, निखर आती हैं।
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अफ़साने का रब्त इजतिमाई तहज़ीब और इसके सर-चश्मों से टूट जाये तो वो अपनी नई तकनीकों के साथ नट का तमाशा होता है या फिर इश्तिहार होता है।
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क़ौम की तख़लीक़ी सलाहियतें सलामत हों तो दूसरे कल्चर के मज़ाहिर अगर दख़ल भी पाएं तो क़ौमी कल्चर का हिस्सा बन जाते हैं। हमारी तहज़ीबी सालमियत के ज़माने में क्रिकेट हमारे यहाँ राह पाता तो हमारे खेलों में एक खेल का इज़ाफ़ा हो जाता।
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उर्दू अदब के हक़ में दो चीज़ें सबसे ज़्यादा मोहलिक साबित हुईं। इन्सान दोस्ती और खद्दर का कुर्ता।
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अब हम आदाद-ओ-शुमार की दुनिया में रहते हैं। चीज़ों की हद-बंदियाँ हो गई हैं। हमारे इर्द-गिर्द तहज़ीब की सरहद खिंच गई है। रेडियो और अख़्बारात इस सरहद के निगह्बान हैं, उनका यह काम है कि कोई ख़बर अफ़्साना बनने लगे तो तरदीदी बयान शाया कर दें।
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ताज महल उसी बावर्ची के ज़माने में तैयार हो सकता था जो एक चने से साठ खाने तैयार कर सकता था।
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हर गुनहगार मुआशरा अपने गुनाहों का बोझ अपने उज़्व-ए-ज़ईफ़ पर डालता है। गुनहगार मुआशरा में अदीब की हैसियत उज़्व-ए-ज़ईफ़ की होती है।
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जो मुआशरा अपने आपको जानना नहीं चाहता वो अदीब को कैसे जानेगा। जिन्हें अपने ज़मीर की आवाज़ सुनाई नहीं देती उन्हें अदीब की आवाज़ भी सुनाई नहीं दे सकती।
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आदमी और आदमी के दरमियान रिश्ता न रहे यानी इज्तिमाई फ़िक्रें ख़त्म हो जाएं और हर फ़र्द को अपनी फ़िक्र हो तो अदब अपनी अपील खो देता है।
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रस्म-उल-ख़त (लिपि) अपनी जगह कोई चीज़ नहीं है, वो तहज़ीब का हिस्सा होता है। ये तहज़ीब शक्लों के एक सिलसिला को जन्म देती है या पहले से मौजूद शक्लों को एक नई मानवियत दे देती है।
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आज का लिखने वाला ग़ालिब और मीर नहीं बन सकता। वो शायराना अज़्मत और मक़्बूलियत उसका मुक़द्दर नहीं है। इसलिए कि वह एक बहरे, गूँगे, अंधे मुआशरे में पैदा हुआ है।
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हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में तख़्लीक़ी अमल की रौ मांद पड़ गई है। एक दस्तरख़्वान पर मौक़ूफ़ नहीं, हमारा लिबास, हमारे खेल, हमारी दस्तकारियां, हमारे पेशे यानी हमारी हर सरगर्मी में तख़्लीक़ी अमल की रौ कुछ सुस्त पड़ गई है। जब ये सूरत हो तो किसी ग़ैर-कल्चर के लिए इस पर यल्ग़ार करना सहल हो जाता है।
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इश्तिहारात ने जो काम जब्र-ओ-तशद्दुद से किया है, वो जदीद तालीम ने पुर-अम्न तरीक़े पर अंजाम दिया है। यानी जदीद तालीम को इश्तिहारात की तरक़्क़ी याफ़्ता और अम्न-पसंदाना सूरत जानिए।
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जिस गुज़रे ज़माने का मैं ज़िक्र करता हूँ, उस ज़माने में समाजी ज़िंदगी के सारे मज़ाहिर हम-रिश्ता थे। समाजी ज़िंदगी के मज़ाहिर और फ़ित्रत के मज़ाहिर। आदमी की दरख़्तों से दोस्ती थी और जानवरों से रिफ़ाक़त थी।
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जब हम किसी अजनबी तहज़ीब की एक तल्मीह (संकेत) को क़बूल करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हम उस बातिनी वारदात पर ईमान ले आए हैं जिससे वो तल्मीह इबारत है।
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हमारे मुआशरे को अदब की तो आज भी ज़रूरत है। इसलिए कि क्रिकेट के मैच साल भर मुतवातिर नहीं होते। आख़िर एक मैच और दूसरे मैच के दरमियानी अर्से में क्या किया जाये। ग़ज़ल और अफ़साना ही पढ़ा जाएगा।
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जब एक क़ौम पर यह नौबत आ जाए कि वो अपनी रुहानी अलामतों की तौसीक़ के लिए कार्लाइल और बर्नार्ड शॉ से सर्टिफ़िकेट हासिल करने लगे तो इसके मानी तो यही हुए कि वो अपने एतबार का असासा तो लुटा बैठी। अब वो अपनी ज़ात को बल्लियाँ लगा कर खड़ी करने और दूसरों के सहारे अपना एतबार बहाल करने की कोशिश कर रही है।
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अदीब भी आदमी होते हैं। इर्द-गिर्द के हालात उसके तर्ज़-ए-अमल पर असर अंदाज़ होते हैं। जब हर शख़्स को अपनी फ़िक्र हो तो अदीब को भी अपनी फ़िक्र पड़ती है।
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अफ़साने का अलमिया (त्रासदी) तो ये है कि इसमें मुंशी प्रेमचंद पैदा हो गए। शायरी के साथ यह गुज़री कि वो मुख़्तलिफ़ तहरीकों के हाथों ख़राब-ओ-ख़स्ता हो कर प्रेमचंद के अफ़साने के अंजाम को पहुंच गई।
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एक बेईमान क़ौम अच्छी नस्र नहीं पैदा कर सकती, तो अच्छी शायरी क्या पैदा करेगी? वैसे इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसे मुआशरे में अच्छे नस्र-निगार या शायर सिरे से पैदा ही नहीं होते। होते तो हैं मगर वो एक मुआस्सिर अदबी रुज्हान नहीं बन सकते और अदब एक मुआशरती ताक़त नहीं बन पाता।
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चीज़ों को परखने, अच्छे और बुरे में तमीज़ करने और ख़ूबसूरती और बदसूरती में फ़र्क़ करने के हमारे अपने मेयार नहीं रहे हैं, या ये कि अपने मेयारों पर एतबार नहीं रहा है।
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हमने अगर रोमन रस्म-उल-ख़त को इख़्तियार किया तो वह सरकारी दफ़्तरों में रहेगा, यूनिवर्सिटियों की ज़ीनत बनेगा और कोठियों में गमलों और गुल-दानों में लगा कर रखा जाएगा। मगर मस्जिदों, दरगाहों और इमाम बाड़ों में तुग़रे भी और दूध-फ़रोशों और पान की दुकानों पर ग़ालिब-ओ-इक़बाल के शेर उसी पुराने-धुराने रस्म-उल-ख़त में आवेज़ाँ रहेंगे।
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अस्ल में हमारे यहाँ मौलवियों और अदीबों का ज़हनी इर्तिक़ा (बौद्धिक विकास) एक ही ख़ुतूत पर हुआ है।
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जब रोज़-मर्रा के कामों में तख़्लीक़ी अमल रुक जाये तो उसे कल्चर के ज़वाल की अलामत समझना चाहिए।
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रिश्तों की तलाश एक दर्द भरा अमल है। मगर हमारे ज़माने में शायद वो ज़्यादा ही पेचीदा और दर्द भरा हो गया है।
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सर-ए-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर भी अच्छा है कि यूं दिल में लहू की बूँद भी नज़र आती है और दिमाग़ में हुस्न का तसव्वुर भी क़ायम रहता है।
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हम ने तज्रुबात और वारदात को याद रखा था और उन्हें अलामतों और इस्तिआरों में महफ़ूज़ कर लिया था। फिर ये क्या उफ़्ताद (मुसीबत) पड़ी कि ग़ज़ल से क़ैस-ओ-फ़रहाद हिजरत कर गए और कोह-ए-तूर पर ऐसी बिजली गिरी कि ग़ज़ल में अब उसका निशान नहीं मिलता। क़ैस-ओ-फ़रहाद के इस्तिआरों के मर जाने के मानी ये हैं कि एक बुनियादी इन्सानी जज़्बा हमारे मुआशरे में एक पैहम तहज़ीबी असर के मा-तहत जिस साँचे में ढल गया था वो साँचा बिखर गया है। जब ऐसा साँचा बिखरता है तो अख़्बारों में अग़वा और क़त्ल की ख़बरों और रिसालों में रूमानी नज़्मों और अफ़सानों की बोह्तात हो जाती है। रूमानी शायरी और रूमानी अफ़साना जज़्बात के अग़्वा और क़त्ल की वारदात हैं।
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आज का अदब, अगर वो सही और सच्चे मानों में आज का अदब है, तो आज के चालू मुआशरती मेयारात का तर्जुमान नहीं हो सकता।
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अंग्रेज़ी फूल और रोमन हुरूफ़ अजनबी ज़मीनों से आए हैं। हमें उनसे महक नहीं आती। शायद हमारी बातिनी ज़िंदगी में वो रुसूख़ उन्हें कभी हासिल न हो सके जिसके बाद फूल और हुरूफ़ रुहानी मानवियत के हामिल बन जाया करते हैं।
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नामों का जाना और नामों का आना मामूली वाक़िया नहीं होता। नाम में बहुत कुछ रखा है। अपने मुस्तनद नामों को रद्द कर के किसी दूसरी तहज़ीब के नामों को सनद समझना, अफ़्क़ार-ओ-ख़्यालात के एक निज़ाम से रिश्ता तोड़ कर किसी दूसरे निज़ाम की गु़लामी क़बूल करना है।
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नई ग़ज़ल वज़ा करने का टोटका ये है कि नई अश्या के नाम शेर में इस्तेमाल कीजिए। जैसे कुर्सी, साईकिल, टेलीफ़ोन, रेलगाड़ी, सिग्नल।
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अगर हमें कोई नया निज़ाम बनाना है तो पुराने निज़ाम को याद रखना चाहिए।अगर हमने पुराने निज़ाम को भुला दिया तो फिर हमें ये भी पता नहीं चलेगा कि किस किस्म की बातों के लिए जद्द-ओ-जहद करनी चाहिए, और एक दिन नौबत ये आएगी कि हम जद्द-ओ-जहद से भी थक जाऐंगे और मशीन के सामने हथियार डाल देंगे।
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आदमी ने पहले-पहल बराह-ए-रास्त चीज़ों की तस्वीरें बनाकर सिर्फ़ मतलब का इज़हार किया। ये तस्वीरें तज्दीदी रंग में ढलते ढलते रस्म-उल-ख़त बन गईं।
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इश्तिहारों की ताक़त यह है कि आज कोई फ़र्म ये ठान ले कि उसे ग़ुलेलों का कारोबार करना है तो वह उसे क्रिकेट के बराबर भी मक़्बूल बना सकती है।
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औरत यानी चे? मह्ज़ जिन्सी जानवर? फिर मर्द को भी इसी ख़ाने में रखिए। ये कोई अलग जानवर तो नहीं है, उसी माद्दा का नर है।
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रस्म-उल-ख़त की तब्दीली महज़ रस्म-उल-ख़त की तब्दीली नहीं होती, बल्कि वो अपने बातिन को भी बदलने का इक़दाम होती है।
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बात ये है कि मालूमात हवास से बे-तअल्लुक़ रहें और अफ़्क़ार-ओ-ख़्यालात ख़ून का हिस्सा ना बनें, यानी फ़िक्र और एहसास का संजोग ना हो सके तो फिर ये इल्म ख़ुश्क इल्म रहता है, हिक्मत नहीं बनता। इसमें वो तौलीदी क़ुव्वत पैदा नहीं होती कि ख़्याल से ख़्याल पैदा हो और अमली ज़िंदगी के साथ उस के वस्ल से कुछ नए रंग, कुछ ताज़ा खूशबूएं जन्म लें।
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तख़्लीक़ी अमल एक हमा-गीर सरगर्मी है। इसका आग़ाज़ दुकानों और बावर्ची-ख़ानों से होता है और तजुर्बा-गाहों और आर्ट गैलरियों में इसका अंजाम होता है। वो रोज़मर्रा की बोल-चाल और नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त से शुरू हो कर अफ़्साना और शायरी में इंतिहा को पहुँचता है।
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हर मतरूक (अप्रचलित) लफ़्ज़ एक गुमशुदा शहर है और हर मतरूक उस्लूब-ए-बयान (शैली) एक छोड़ा हुआ इलाक़ा।
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इश्तिहारात दिल-ओ-दिमाग़ पर यल्ग़ार करते हैं और अक़्ल के गिर्द घेरा डालते हैं। वे जदीद नफ़्सियाती अस्लहे से मुसल्लह होते हैं, जिनके आगे कोई मुदाफ़िअत नहीं चलती और दिल-ओ-दिमाग़ को बिल-आख़िर पसपा होना है।
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जब सब सच बोल रहे हों तो सच बोलना एक सीधा सादा और मुआशरती काम है, लेकिन जहां सब झूठ बोल रहे हो, वहां सच बोलना सबसे बड़ी अख़्लाक़ी क़द्र बन जाता है। इसे मुस्लमानों की ज़बान में शहादत कहते हैं।
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बड़ा अदीब फ़र्द के तख़्लीक़ी जौहर और मुआशरे के तख़्लीक़ी जौहर के विसाल का हासिल होता है। बड़ा अदीब हमारे अह्द में पैदा नहीं हो सकता इसलिए कि ये अह्द अपना तख़्लीक़ी जौहर खो बैठा है।
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कहते हैं कि मौजूदा बर्र-ए-आज़मों (महाद्वीप) के साथ पहले एक और बर्र-ए-आज़म था, जो समुंद्र में ग़र्क़ हो गया। उर्दू की पुरानी दास्तानों और पुरानी शायरी में जो रंगा-रंग असालीब-ए-बयान और अन-गिनत अलफ़ाज़ नज़र आते हैं वो पता देते हैं कि उर्दू ज़बान भी एक पूरा बर्र-ए-आज़म ग़र्क़ किए बैठी है।
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जब किसी ज़बान से अलामतें (प्रतीक) गुम होने लगती हैं तो वो इस ख़तरे का ऐलान हैं कि वो समाज अपनी रुहानी वारदात को भूल रहा है, अपनी ज़ात को फ़रामोश करना चाहता है।
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क़ौमों को जंगें तबाह नहीं करतीं। कौमें उस वक़्त तबाह होती हैं, जब जंग के मक़ासिद बदल जाते हैं।
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