ख़ार देहलवी
ग़ज़ल 15
अशआर 9
उट्ठे न बैठ कर कभी कू-ए-हबीब से
उस दर पे क्या गए कि उसी दर के हो गए
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चश्म-ए-गिर्यां की आबयारी से
दिल के दाग़ों पे फिर बहार आई
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बरहमी हुस्न को कुछ और जिला देती है
वो जमाली तेरा चेहरा वो जलाली आँखें
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मैं ने माना कि अदू भी तिरा शैदाई है
फ़र्क़ होता है फ़िदा होने में मर जाने में
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सच तो ये है कि दुआ ने न दवा ने रक्खा
हम को ज़िंदा तिरे दामन की हवा ने रक्खा
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