ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल 21
नज़्म 7
अशआर 16
इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ
जो कभी अपना न था वो ग़ैर का कैसे हुआ
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क़तरे की जुरअतों ने सदफ़ से लिया ख़िराज
दरिया समुंदरों में मिले और मर गए
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तू नहीं पास तिरी याद तो है
तू ही तो सूझे जहाँ तक सोचूँ
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ये कौन चुपके चुपके उठा और चल दिया
'ख़ातिर' ये किस ने लूट लीं महफ़िल की धड़कनें
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लोगों ने तो सूरज की चका-चौंद को पूजा
मैं ने तो तिरे साए को भी सज्दा किया है
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पहेली 3
पुस्तकें 11
चित्र शायरी 4
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली ढलते ढलते रात ढली उन आँखों ने लूट के भी अपने ऊपर बात न ली शम्अ' का अंजाम न पूछ परवानों के साथ जली अब के भी वो दूर रहे अब के भी बरसात चली 'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल इस में जीत से मात भली
वीडियो 6
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