Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
noImage

किशन कुमार वक़ार

किशन कुमार वक़ार के शेर

327
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

आतिशीं हुस्न क्यूँ दिखाते हो

दिल है आशिक़ का कोह-ए-तूर नहीं

हाथ पिस्ताँ पे ग़ैर का पहुँचा

आप भी अब हुए अनार-फ़रोश

हुस्न उन का अगर है संगीं-दिल

इश्क़ अपना भी सख़्त बाज़ू है

जो मुझ पर है वही है ग़ैर पर लुत्फ़

हुआ है ख़ात्मा इस पर वफ़ा का

तुम्हारे इश्क़-ए-अबरू में हिलाल-ए-ईद की सूरत

हज़ारों उँगलियाँ उट्ठीं जिधर से हो के हम निकले

गर हुस्न-ए-गंदुमी तिरा उन को था पसंद

आदम ने छोड़ा किस लिए बाग़-ए-बहिश्त को

ब-क़ैद-ए-वक़्त पढ़ी मैं ने पंजगाना नमाज़

शराब पीने में कुछ एहतियात मुझ को नहीं

बैठे जो उस गली में मर कर भी उट्ठे हम

इक ढेर गिर के हो गए दीवार की तरह

छुपता नहीं है दिल में कभी राज़ इश्क़ का

ये आग वो है जिस को नहीं ताब संग में

कुछ ग़म फ़िराक़ का है कुछ वस्ल की ख़ुशी

हूँ उस के ज़ौक़-ओ-शौक़ में मसरूर रात दिन

मुझी को गालियाँ देते रहे वो

मगर लेता रहा बोसे चटा-चट

बहुत दिनों से हूँ आमद का अपनी चश्म-ब-राह

तुम्हारा ले गया यार इंतिज़ार कहाँ

मैं कहूँ आप तुम्हें आप कहें तुम मुझ को

तुम जताते नहीं किस रोज़ तहक्कुम मुझ को

धूप में रख क़फ़स सय्याद

साया-पर्वरदा-ए-चमन हूँ मैं

यार ने ख़त्त-ओ-कबूतर के किए हैं टुकड़े

पुर्ज़े काग़ज़ के करें जम्अ' कि पर जम्अ' करें

बोसा दहन का उस के पाएँगे अपने लब

दाग़ी है मैं ने नोक ज़बान-ए-सवाल की

मुख़ातब जो ज़ाहिद से तू हो गया

तो उस का भी ठंडा वुज़ू हो गया

जिस को पास उस ने बिठाया एक दिन

उस को दुनिया से उठाया एक दिन

हम बंदगान-ए-इश्क़ का मस्लक निराला है

काफ़िर की इस में वज़्अ दीं-दार की तरह

अश्क-ए-हसरत है आज तूफ़ाँ-ख़ेज़

कश्ती-ए-चश्म की तबाही है

है जब से दस्त-गीर-ए-जुनूँ कू-ए-यार में

फिरता हूँ एक पाँव से परकार की तरह

किस वास्ते लड़ते हैं बहम शैख़-ओ-बरहमन

का'बा किसी का है बुत-ख़ाना किसी का

आरिज़ पे रही ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम हमेशा

पामाल रहा कुफ़्र का इस्लाम हमेशा

दिन लगे हैं ये रात को मेरी

चश्म-ए-आहू चराग़-ए-सहरा है

ज़ुल्फ़ अबरू ने तो जान था बाँधा मारा

पर तिरी चश्म ने कर के मुझे बे-जाँ छोड़ा

शराब ग़ैर को दे कर जला हर करवट

दिल को आग पे तू सूरत-ए-कबाब फिरा

उखड़ी बातों से उस की साबित है

कुछ कुछ आज ग़ैर जड़ के उठा

एक झूटे के वस्फ़-ए-दंदाँ में

सच्चे मोती सदा पिरोता हूँ

तोड़ो दिल कि है का'बा का ढाना

ये दो घर हैं मगर बुनियाद है एक

गो बुरा ही दैर हो दस पाँच देखीं सूरतें

का'बे में तो टूटी मूरत भी नज़र आई नहीं

दयार-ए-इश्क़ में ये मसअला है मुफ़्ता-बिह

ब-जुज़ हराम की रग़बत के कुछ हलाल नहीं

टीम-टाम आइने की जो है वो सब मुँह पर है

आलम-ए-हू के सिवा घर में मगर कुछ भी नहीं

इमसाक में रहेगी पाबंदी-ए-मनी

हरगिज़ नहीं हैं मुग़बचे बिंत-उल-इनब से कम

Recitation

बोलिए