कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल 29
अशआर 20
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
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चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आइना झूट बोलता ही नहीं
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तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत
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मैं जिस के हाथ में इक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मिरी तलाश में है
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