महेंद्र कुमार सानी के शेर
तिरा वजूद तिरे रास्ते में हाइल है
यहीं से हो के मिरा क़ाफ़िला गुज़रता है
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उसे मैं दूर ही से देखता रहा 'सानी'
जो आज पानी में उतरा हूँ तो खुला दरिया
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दरख़्त-ए-ज़र्द में जैसे हरा सा रहता है
वो ठीक उसी तरह मुझी में भरा सा रहता है
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रौशनी में लफ़्ज़ के तहलील हो जाने से क़ब्ल
इक ख़ला पड़ता है जिस में घूमता रहता हूँ मैं
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तुझे रौशनी से जुदा करूँ किसी शाम मैं
तुझे इतनी ताब में देखना नहीं हो रहा
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हो रहा हूँ तिरे दुख में तहलील
अपने हर दर्द से कटता जाऊँ
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मैं तन्हाई को अपना हम-सफ़र क्या मान बैठा
मुझे लगता है मेरे साथ दुनिया चल रही है
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दीवार ओ दर ने रंगों से दामन छुड़ा लिया
यक-रंगी-ए-सुकूत से क्यूँ घर निढ़ाल है
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इसी दुनिया में है वो दूसरी दुनिया 'सानी'
लोग जिस के लिए जंगल की तरफ़ जाते हैं
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दीवार-ए-ख़्वाब में कोई दर कर नहीं सके
हम लोग शब से आगे सफ़र कर नहीं सके
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मैं अपनी यात्रा पर जा रहा हूँ
मुझे अब लौट कर आना नहीं है
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कहाँ आप को भी गवारा था मैं
नहीं जिस घड़ी तक तुम्हारा था मैं
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मैं दिन को शब से भला क्यूँ अलग करूँ सानी
ये तीरगी भी तो इक रौशनी का हिस्सा है
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रात दिन गर्दिश में हैं लेकिन पड़ा रहता हूँ मैं
काम क्या मेरा यहाँ है सोचता रहता हूँ मैं
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टैग : वजूद
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जाने कैसी रौशनी थी कर गई अंधा मुझे
इस भयानक तीरगी में भी बुझा रहता हूँ मैं
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यक़ीनन सोचता होगा वो मुझ को
उसे मैं ने अभी सोचा नहीं है
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मैं चाहता हूँ कि तेरी तरफ़ न देखूँ मैं
मिरी नज़र को मगर तू ने बाँध रक्खा है
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