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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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मलिका नसीम

1954

क्लासिकी ग़ज़ल का समकालीन संवेदना के साथ संगम, बावक़ार निस्वानी लहजे से आरास्ता

क्लासिकी ग़ज़ल का समकालीन संवेदना के साथ संगम, बावक़ार निस्वानी लहजे से आरास्ता

मलिका नसीम के शेर

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ख़्वाब ठहरे थे तो आँखें भीगने से बच गईं

वर्ना चेहरे पर तो ग़म की बारिशों का अक्स है

शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी आज कहाँ लाई है

प्यास सहरा की समुंदर में उतर आई है

मैं किसी और को देखूँ भी तो देखूँ कैसे

उस के ख़्वाबों की इन आँखों पे निगहबानी है

वो लड़कियाँ कि जो लगती थीं सादा तहरीरें

पढ़ी गईं तो अनोखी पहेलियाँ निकलीं

हर दौर का जो अक्स है वो आइना हैं हम

तख़लीक़-ए-काएनात का इक सिलसिला हैं हम

उम्र गुज़री इक निगाह-ए-लुत्फ़ की उम्मीद में

हम को अपने हौसलों की ये अदा अच्छी लगी

कर गईं मौजें शरारत जब भी लिक्खा तेरा नाम

रेत पर जितनी लकीरें थीं वो सब मिल-जुल गईं

हम ने ये सोच के छेड़ा था फ़साना गुल का

इस बहाने ही तिरे ज़िक्र का पहलू निकले

पढ़ ले कोई तहरीरें तुम्हारे ज़र्द चेहरे की

दर-ओ-दीवार घर के शोख़ रंगों से सजा रखना

नज़र में यादों के मंज़र समेट कर रखना

मैं जैसा छोड़ के आई हूँ वैसा घर रखना

हवाएँ करती हैं सरगोशियाँ सी आँगन में

जाने आएँगे किस के क़दम चराग़ जले

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