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मीर कल्लू अर्श

1783 - 1867 | लखनऊ, भारत

महान उर्दू शायर मीर तक़ी मीर के बेटे

महान उर्दू शायर मीर तक़ी मीर के बेटे

मीर कल्लू अर्श के शेर

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नज़र किसी को वो मू-ए-कमर नहीं आता

ब-रंग-ए-तार-ए-नज़र है नज़र नहीं आता

सेह्हत है मरज़ क़ज़ा शिफ़ा है

अल्लाह हकीम है हमारा

चश्म-ए-बातिन में से जब ज़ाहिर का पर्दा उठ गया

जो मुसलमाँ था वही हिन्दू नज़र आया मुझे

काबा का और ख़ाना-ए-दिल का ये हाल है

जैसे कोई मकाँ हो मकाँ के जवाब में

गले में अपने पहना है जो तू ने बुत-ए-काफ़िर

मिरी तस्बीह को है रश्क ज़ुन्नार-ए-बरहमन पर

क्या दिया बोसा लब-ए-शीरीं का हो कर तुर्श-रू

मुँह हुआ मीठा तो क्या दिल अपना खट्टा हो गया

क्या ग़ैर क्या अज़ीज़ कोई नौहागर हो

जान यूँ निकल कि बदन तक ख़बर हो

ख़ून-ए-उश्शाक़ का उठा बीड़ा

बे-सबब कब वो पान खाता है

तोड़ कर काबे को मस्जिद बनाओ ज़ाहिद

ख़ाना-बर्बाद किसी दिल ही में कर घर पैदा

हसरत-ए-दीद में आख़िर को दम अपना उल्टा

पर्दा-ए-चश्म उस शोख़ ने अपना उल्टा

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