Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

पान पर शेर

पान हिन्दुस्तानी तहज़ीब

का एक अहम हिस्सा है। हिन्दुस्तान के एक ब़ड़े हिस्से में पान खाना और खिलाना समाजी राब्ते और तअल्लुक़ात को बढ़ाने और मेहमान-नवाज़ी की रस्म को क़ायम रखने का अहम ज़रिया है। पान की लाली अगर महबूब के होंठों पर हो तो शायर इसे सौ तरह से देखता और बयान करता है। आप भी मुलाहिज़ फ़रमाइये पान शायरी का यह रंगः

लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है

क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है

अकबर इलाहाबादी

उठाया उस ने बीड़ा क़त्ल का कुछ दिल में ठाना है

चबाना पान का भी ख़ूँ बहाने का बहाना है

मर्दान अली खां राना

जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर

किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर

मीर तक़ी मीर

गिलौरी रक़ीबों ने भेजी है साहब

किसी और को भी खिला लीजिएगा

वाजिद अली शाह अख़्तर

सुना के कोई कहानी हमें सुलाती थी

दुआओं जैसी बड़े पान-दान की ख़ुशबू

बशीर बद्र

होंठों में दाब कर जो गिलौरी दी यार ने

क्या दाँत पीसे ग़ैरों ने क्या क्या चबाए होंठ

असद अली ख़ान क़लक़

बालों में बल है आँख में सुर्मा है मुँह में पान

घर से निकल के पाँव निकाले निकल चले

इमदाद अली बहर

बहुत से ख़ून-ख़राबे मचेंगे ख़ाना-ख़राब

यही है रंग अगर तेरे पान खाने का

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

काजल मेहंदी पान मिसी और कंघी चोटी में हर आन

क्या क्या रंग बनावेगी और क्या क्या नक़्शे ढालेगी

नज़ीर अकबराबादी

पान के ठेले होटल लोगों का जमघट

अपने तन्हा होने का एहसास भी क्या

अब्दुर्रहीम नश्तर

कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते

किस रोज़ मिरे क़त्ल का बीड़ा नहीं उठता

मुनीर शिकोहाबादी

था बहुत उन को गिलौरी का उठाना मुश्किल

दस्त-ए-नाज़ुक से दिया पान बड़ी मुश्किल से

रियाज़ ख़ैराबादी

पान खा कर जो उगाल आप ने थूका साहब

जौहरी महव हुए लाल-ए-यमन याद आया

आग़ा अकबराबादी

तुम्हारे लब की सुर्ख़ी लअ'ल की मानिंद असली है

अगर तुम पान प्यारे खाओगे तो क्या होगा

आबरू शाह मुबारक

हम उठते हैं वो देते हैं

हाथ में पान है क्या मुश्किल है

हफ़ीज़ जौनपुरी

मिरे क़त्ल पर तुम ने बीड़ा उठाया

मिरे हाथ का पान खाया तो होता

इमदाद अली बहर

जभी तू पान खा कर मुस्कुराया

तभी दिल खिल गया गुल की कली का

अब्दुल वहाब यकरू

पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं

ये मिरे क़त्ल के सामान कहाँ जाते हैं

ज़हीर देहलवी

तेरे होंठों के तईं पान से लाल

देख कर ख़ून-ए-जिगर खाता हूँ

अज्ञात

ख़ून-ए-उश्शाक़ है मआनी में

शौक़ से पान खाइए साहब

सख़ी लख़नवी

आए भी तो खाए गिलौरी मला इत्र

रोकी मिरी दावत मुझे मेहमाँ से गिला है

इमदाद अली बहर

गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा

तुम सुपारी की डली रखते हो नाहक़ पान में

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

सदा पान खा खा के निकले है बाहर

ज़माने में ख़ूँ-ख़्वार पैदा हुआ है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

हाथ में ले कर गिलौरी मुझ को दिखला कर कहा

मुँह तो बनवाए कोई इस पान खाने के लिए

लाला माधव राम जौहर

आते हैं वो कहीं से तो 'मेहर' क़र्ज़ दाम

चिकनी डली इलाइची मँगा पान छालीया

हातिम अली मेहर

पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को

ख़ूँ रुलाएगा मिरी जाँ दहन-ए-सुर्ख़ तिरा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

ख़ून-ए-उश्शाक़ का उठा बीड़ा

बे-सबब कब वो पान खाता है

मीर कल्लू अर्श

क्या है मुझे देते हो गिलौरी

चूने में कहीं संख्या हो

इमदाद अली बहर
बोलिए