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अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

1769 - 1851 | दिल्ली, भारत

मुग़ल बादशाह शाह आलम सानी के उस्ताद, मीर तक़ी मीर के बाद के शायरों के समकालीन

मुग़ल बादशाह शाह आलम सानी के उस्ताद, मीर तक़ी मीर के बाद के शायरों के समकालीन

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

ग़ज़ल 42

अशआर 47

अपनी ना-फ़हमी से मैं और कुछ कर बैठूँ

इस तरह से तुम्हें जाएज़ नहीं एजाज़ से रम्ज़

चश्म-ए-मस्त उस की याद आने लगी

फिर ज़बाँ मेरी लड़खड़ाने लगी

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जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा

तुझ पे शीरीं है 'ख़ुसरव' का फ़रहाद का हक़

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पलकों से गिरे है अश्क टप टप

पट से वो लगा हुआ खड़ा है

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मय-कदे में इश्क़ के कुछ सरसरी जाना नहीं

कासा-ए-सर को यहाँ गर्दिश है पैमाने की तरह

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