मोहसिन भोपाली के शेर
ज़िंदगी गुल है नग़्मा है महताब है
ज़िंदगी को फ़क़त इम्तिहाँ मत समझ
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बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है
जो हक़ की पूछ रहे हो तो हक़ अदा न हुआ
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एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
जाते जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ
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जाने वाले सब आ चुके 'मोहसिन'
आने वाला अभी नहीं आया
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कोई सूरत नहीं ख़राबी की
किस ख़राबे में बस रहा है जिस्म
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'मोहसिन' अपनाइयत की फ़ज़ा भी तो हो
सिर्फ़ दीवार-ओ-दर को मकाँ मत समझ
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अब के मौसम में ये मेयार-ए-जुनूँ ठहरा है
सर सलामत रहें दस्तार न रहने पाए
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नैरंगी-ए-सियासत-ए-दौराँ तो देखिए
मंज़िल उन्हें मिली जो शरीक-ए-सफ़र न थे
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टैग : क़िस्मत
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लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
इस एहतिमाम-ए-शौक़ में हुस्न-ए-असर गया
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रौशनी हैं सफ़र में रहते हैं
वक़्त की रहगुज़र में रहते हैं
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'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शेरों का मफ़्हूम
अपने आप को पहचानेंगे जैसे जैसे लोग
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ख़ंदा-ए-लब में निहाँ ज़ख़्म-ए-हुनर देखेगा कौन
बज़्म में हैं सब के सब अहल-ए-नज़र देखेगा कौन
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हमारी जान पे दोहरा अज़ाब है 'मोहसिन'
कि देखना ही नहीं हम को सोचना भी है
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लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
ज़िक्र-ए-सहर बजा है यक़ीन-ए-सहर भी है
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ग़लत थे वादे मगर मैं यक़ीन रखता था
वो शख़्स लहजा बहुत दिल-नशीन रखता था
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ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
हो सके तुम से नया ज़ख़्म लगाते जाओ
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उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
आज ख़ुद अपने तलबगार हैं हम
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सोचा था कि उस बज़्म में ख़ामोश रहेंगे
मौज़ू-ए-सुख़न बन के रही कम-सुख़नी भी
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पहले जो कहा अब भी वही कहते हैं 'मोहसिन'
इतना है ब-अंदाज़-ए-दिगर कहने लगे हैं
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इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
हो जुस्तुजू तो कूचा-ओ-बाज़ार देखना
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जो मिले थे हमें किताबों में
जाने वो किस नगर में रहते हैं
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क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा
तू नहीं होगा तिरी बज़्म में आना होगा
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सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे
शब भर जो इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे
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सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
मिरे ख़याल को तुम शाइराना कह देना
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उस से मिल कर उसी को पूछते हैं
बे-ख़याली सी बे-ख़याली है
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इस लिए सुनता हूँ 'मोहसिन' हर फ़साना ग़ौर से
इक हक़ीक़त के भी बन जाते हैं अफ़्साने बहुत
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किस क़दर नादिम हुआ हूँ मैं बुरा कह कर उसे
क्या ख़बर थी जाते जाते वो दुआ दे जाएगा
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