मोहसिन ज़ैदी के शेर
जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई
वक़्त ने ख़त ऐसा खींचा मेरे उस के दरमियाँ
बिछड़ने वालों में हम जिस से आश्ना कम थे
न जाने दिल ने उसे याद क्यूँ ज़ियादा किया
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कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
किसी के साथ दरिया जा रहा है
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जान कर चुप हैं वगरना हम भी
बात करने का हुनर जानते हैं
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ये ज़ुल्म देखिए कि घरों में लगी है आग
और हुक्म है मकीन निकल कर न घर से आएँ
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कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था
पसंद उस ने भी रंगों में रंग सादा किया
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हम ने भी देखी है दुनिया 'मोहसिन'
है किधर किस की नज़र जानते हैं
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तीर ओ कमान आप भी 'मोहसिन' सँभालिये
जब दोस्ती की आड़ में ख़ंजर दिखाई दे
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टैग : तीर
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दूर रहना था जब उस को 'मोहसिन'
मेरे नज़दीक वो आया क्यूँ था
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लिबास बदले नहीं हम ने मौसमों की तरह
कि ज़ेब-ए-तन जो किया एक ही लबादा किया
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सुनते हैं कि आबाद यहाँ था कोई कुम्बा
आसार भी कहते हैं यहाँ पर कोई घर था
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हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है
आवाज़ पे आवाज़ दो सुनता नहीं कोई
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अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
सुमूम बन गई बाद-ए-सबा भी मेरे लिए
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