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मुख़्तार अहमद की बच्चों की कहानियाँ
बिरयानी नहीं पकी है भाई
रशीदा का शौहर शहाब कारोबारी दौरे पर हांगकांग गया हुआ था। उसका एक पुर-रौनक़ इलाक़े की मार्केट में गारमेंटस का एक बड़ा सा स्टोर था जिसमें बच्चों के मलबूसात फ़रोख़्त किए जाते थे। स्टोर में तीन सेल्ज़-मेन काम करते थे एक लड़का भी था जो सफ़ाई-सुथराई और दूसरे छोटे-मोटे
शहज़ादी और लकड़हारा
शहज़ादी सुल्ताना बादशाह की शादी के बाद बड़ी मिन्नतों मुरादों के बाद पैदा हुई थी। बादशाह और मलिका तो उसकी पैदाइश पर ख़ुश थे ही मगर जिस रोज़ वो पैदा हुई थी पूरे मुल्क में ख़ुशी की एक लहर दौड़ गई थी। हर तरफ़ जश्न मनाया जा रहा था। बादशाह को तो यक़ीन ही नहीं आ
मानो कहाँ गई?
महल के शाही बावर्ची का बेटा शेर अफ़्गन भागता-भागता घर में दाख़िल हुआ और हाँपते हुए बोला, “अब्बा-अब्बा, बावर्ची-ख़ाने में बहुत सारी बिल्लियाँ बैठी हैं, जल्दी चलो। कहीं वो सारा दूध न पी जाएँ।” बावर्ची बैठा बीवी से बातें कर रहा था, बेटे की इत्तिला पर घबरा
मुन्नी के जूते
अबरार घी बनाने की एक कंपनी में मुलाज़मत करता था। उसकी रिहायश गाह इस कंपनी से कुल चार-पाँच मीटर दूर थी इसलिए वो साइकल पर कंपनी आता जाता था। वो एक मेहनती और ईमानदार शख़्स था और दिल लगा कर अपना काम करता था। उसके दो बच्चे थे, अर्सलान और बतूल। बतूल को सब प्यार
हमें इनाम नहीं चाहिए
शाकिर साहब सुबह ही से ही गाड़ी की सफ़ाई-सुथराई में लगे हुए थे और अब दोपहर होने को आ गई थी। उनके तीनों बच्चे आक़िब, फ़हद और हानिया भी उनका हाथ बटा रहे थे। उनकी बीवी नसरीन किचन में खाना बनाने में मसरूफ़ थी और कभी-कभी खिड़की से बाहर झाँक कर उन्हें भी देख लेती
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