aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1910
ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो
यही जीने का सामाँ हैं तो फिर इन में कमी क्यूँ हो
उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो
जो अपने साथ राह-ए-शौक़ में दो गाम आता है
ग़म न अपना न अब ख़ुशी अपनी
यानी दुनिया बदल गई अपनी
कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने
हज़ारों मंज़िलें हैं मंज़िल-ए-आराम आने तक
जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं
ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं
अफ़्कार-ए-ख़ुशतर
Afkar-e-Khushtar
Gul Afshaniyan
1967
Qaumi Zaban
Ghalib Number : Shumara Number-002
2008
Shumara Number-006
2011
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