- पुस्तक सूची 185588
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1922
औषधि883 आंदोलन291 नॉवेल / उपन्यास4404 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी11
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर64
- दीवान1435
- दोहा64
- महा-काव्य105
- व्याख्या182
- गीत83
- ग़ज़ल1118
- हाइकु12
- हम्द44
- हास्य-व्यंग36
- संकलन1547
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात675
- माहिया19
- काव्य संग्रह4872
- मर्सिया376
- मसनवी817
- मुसद्दस57
- नात537
- नज़्म1204
- अन्य68
- पहेली16
- क़सीदा180
- क़व्वाली19
- क़ित'अ60
- रुबाई290
- मुख़म्मस17
- रेख़्ती12
- शेष-रचनाएं27
- सलाम33
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई28
- अनुवाद73
- वासोख़्त26
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के हास्य-व्यंग्य
हुए मर के हम जो रुस्वा
अब तो मा'मूल सा बन गया है कि कहीं ता'ज़ियत या तज्हीज़-व-तकफ़ीन में शरीक होना पड़े तो मिर्ज़ा को ज़रूर साथ ले लेता हूँ। ऐसे मौक़ों पर हर शख़्स इज़्हार-ए-हम-दर्दी के तौर पर कुछ न कुछ ज़रूर कहता है। क़तअ'-ए-तारीख़-ए-वफ़ात ही सही। मगर मुझे न जाने क्यूँ
पड़िए गर बीमार
तो कोई न हो तीमारदार? जी नहीं! भला कोई तीमारदार न हो तो बीमार पड़ने से फ़ायदा? और अगर मर जाईए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो? तौबा कीजिए मरने का ये अकल खरा दक़ियानूसी अंदाज़ मुझे कभी पसंद न आया। हो सकता है ग़ालिब के तरफ़दार ये कहें कि मग़रिब को महज़ जीने का क़रीना
जुनून-ए-लतीफ़ा
बड़ा मुबारक होता है वो दिन जब कोई नया ख़ानसामां घर में आए और इससे भी ज़्यादा मुबारक वो दिन जब वो चला जाये! चूँकि ऐसे मुबारक दिन साल में कई बार आते हैं और तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माईश करके गुज़र जाते हैं। इसलिए इत्मिनान का सांस लेना, बक़ौल शायर सिर्फ़
और आना घर में मुर्ग़ियों का
अर्ज़ किया, कुछ भी हो, मैं घर में मुर्ग़ियां पालने का रवादार नहीं। मेरा रासिख़ अक़ीदा है कि उनका सही मुक़ाम पेट और प्लेट है और शायद।” “इस रासिख़ अक़ीदे में मेरी तरफ़ से पतीली का और इज़ाफ़ा कर लीजिए।” उन्होंने बात काटी। फिर अर्ज़ किया, “और शायद यही वजह
चारपाई और कल्चर
एक फ़्रांसीसी मोफ़क्किर कहता है कि मूसीक़ी में मुझे जो बात पसंद है वो दरअसल वो हसीन ख़वातीन हैं जो अपनी नन्ही नन्ही हथेलियों पर थोड़ियां रखकर उसे सुनती हैं। ये क़ौल मैंने अपनी बर्रियत में इसलिए नक़ल नहीं किया कि मैं जो कव़्वाली से बेज़ार हूँ तो इसकी असल
क्रिकेट
मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का दावा कुछ ऐसा ग़लत मालूम नहीं होता कि क्रिकेट बड़ी तेज़ी से हमारा क़ौमी खेल बनता जा रहा है। क़ौमी खेल से ग़ालिबन उनकी मुराद ऐसा खेल है जिसे दूसरी कौमें नहीं खेलतीं। हम आज तक क्रिकेट नहीं खेले लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हमें उसकी
कॉफ़ी
मैंने सवाल किया, "आप काफ़ी क्यों पीते हैं?" उन्होंने जवाब दिया, "आप क्यों नहीं पीते?" "मुझे उसमें सिगार की सी बू आती है।" अगर आपका इशारा उसकी सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू की तरफ़ है तो ये आपकी क़ुव्वत शामा की कोताही है।" गो कि उनका इशारा सरीहन मेरी नाक
हवेली
वह आदमी है मगर देखने की ताब नहीं यादश बख़ैर! मैंने 1945 में जब क़िबला को पहले पहल देखा तो उनका हुलिया ऐसा हो गया था जैसा अब मेरा है। लेकिन ज़िक्र हमारे यार-ए-तरहदार बशारत अली फ़ारूक़ी के ख़ुस्र का है, लिहाज़ा तआ'रुफ़ कुछ उन्हीं की ज़बान से अच्छा
सिन्फ़-ए-लाग़र
सुनते चले आए हैं कि आम, गुलाब और साँप की तरह औरतों की भी बेशुमार क़िस्में। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि आम और गुलाब की क़िस्म का सही अंदाज़ा काटने और सूँघने के बाद होता है और अगर मार गज़ीदा मर जाये तो साँप की क़िस्म का पता चलाना भी चंदाँ दुशवार नहीं। लेकिन आख़िर-उल-ज़िक्र
बारे आलू का कुछ बयाँ हो जाए
दूसरों को क्या नाम रखें, हम ख़ुद बीसियों चीज़ों से चिड़ते हैं। करम कल्ला, पनीर, कम्बल, काफ़ी और काफ्का, औरत का गाना, मर्द का नाच, गेंदे का फूल, इतवार का मुलाक़ाती, मुर्ग़ी का गोश्त, पानदान, ग़रारा, ख़ूबसूरत औरत का शौहर... ज़्यादा हद्द-ए-अदब कि मुकम्मल
चंद तस्वीर-ए-बुताँ
सीखे हैं महरुख़ों के लिए... रईस-उल-मुतग़ज़्ज़िलीन मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी के तीन रंग बताए हैं। फ़ासिक़ाना, आ'शिक़ाना और आ'रिफ़ाना। मौलाना की तरह चक्की की मशक़्क़त तो बड़ी बात है, मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग ने तो मश्क़-ए-सुख़न से भी ज़ेह्न को
मूज़ी
मिर्ज़ा करते वही हैं जो उनका दिल चाहे लेकिन इसकी तावील अजीब-ओ-ग़रीब करते हैं। सही बात को ग़लत दलायल से साबित करने का ये नाक़ाबिल रश्क मलिका शाज़-ओ-नादिर ही मर्दों के हिस्से में आता है। अब सिगरेट ही को लीजिए। हमें किसी के सिगरेट न पीने पर कोई एतराज़ नहीं,
सिब्ग़े एंड संस (सोदागरान-ओ-नाशिरान-ए-कुतुब)
यह उस पुरउम्मीद ज़माने का ज़िक्र है जब उन्हें किताबों की दुकान खोले और डेल कार्नेगी पढ़े दो-तीन महीने हुए होंगे और जब उनके होंटों पर हर वक़्त वो धुली मंझी मुस्कुराहट खेलती रहती थी, जो आजकल सिर्फ़ टूथपेस्ट के इश्तिहारों में नज़र आती है। उस ज़माने में उनकी
यहाँ कुछ फूल रखे हैं
इस तक़रीब में शिर्कत के दा'वत नामे के साथ जब मुझे मुत्तला किया गया कि मेरे तक़रीबाती फ़राएज़ ख़ालिसतन रस्मी और हाशियाई होगें तो मुझे एक गो न इत्मिनान हुआ। एक गो न मैं रवा-रवी में लिख गया, वर्ना सच पूछिए तो दो गुना इत्मिनान हुआ। इसलिए कि मुझे इत्मिनान
दस्त-ए-ज़ुलैख़ा
बाबा-ए-अंग्रेज़ी डाक्टर सेमुएल जॉनसन का यह क़ौल दिल की सियाही से लिखने के लाएक़ है कि जो शख़्स रुपे के लालच के इ'लावा किसी और जज़्बे के तहत किताब लिखता है, उससे बड़ा अहमक़ रु-ए-ज़मीन पर कोई नही! हमें भी इस कुल्लिए से हर्फ़-ब-हर्फ़ इत्तफाक़ है, बशर्ते कि किताब
हिल स्टेशन
उन दिनों मिर्ज़ा के आसाब पर हिल स्टेशन बुरी तरह सवार था। लेकिन हमारा हाल उनसे भी ज़्यादा ख़स्ता था। इसलिए कि हम पर मिर्ज़ा अपने मुतास्सिरा आसाब और हिल स्टेशन समेत सवार थे। जान ज़ैक़ में थी। उठते-बैठते सोते जागते उसी का ज़िक्र, उसी का विर्द। हुआ ये
join rekhta family!
-
बाल-साहित्य1922
-