मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र के शेर
मैं जब भूके परिंदे देखता हूँ अपने आँगन में
मुझे अपने वतन के नंगे बच्चे याद आते हैं
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हम तल्ख़ी-ए-हयात को आसाँ न कर सके
सहरा-ए-ज़िंदगी को गुलिस्ताँ न कर सके
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हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती
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मुसलमाँ था मगर तेरी अदा-ए-फ़ित्ना-परवर ने
दिखा कर काकुल-ए-पेचाँ मुझे काफ़िर बना डाला
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