पंडित दया शंकर नसीम लखनवी के शेर
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने
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समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
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लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के
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बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
यहीं से है काबा को सज्दा हमारा
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क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
जादू वो जो सर पे चढ़ के बोले
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जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
जो ख़त में हाल लिखा था वो ख़त का हाल हुआ
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जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
बैठ जाओ ख़ुद हया उठ जाएगी
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जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
क्या ये दुनिया आक़िबत बख़्शवाएगी
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कूचा-ए-जानाँ की मिलती थी न राह
बंद कीं आँखें तो रस्ता खुल गया
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मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
नज़र बचा के तू ऐ दिल किधर को जाता है
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जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
चलो जो शब को तो क़दमों पे माहताब गिरे
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चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी
फ़रिश्ता हुए साथ घर देखने को
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मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह
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था सम पे ये उस परी का नक़्शा
सब आँख मिला कहते थे आ
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सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
ख़ंदा-ए-बेहूदा पर तोड़े गए दंदान-ए-सुब्ह
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