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रद करें डाउनलोड शेर

सच पर शेर

सच और झूठ, हक़ और बातिल

की जंग नई नहीं। सच बोलना और सच का साथ देना किसी भी ज़माने में हौसले का काम रहा है। झूठ की ताक़त डराने के लिए हमेशा से इस्तेमाल होती रही है। शायरी ने इन तमाम पहलुओं पर अलग-अलग अन्दाज़ से निगाह डाली है। आइये जानते हैं सच शायरी की सच्चाई रेख़्ता के इस इन्तिख़ाब की मदद सेः

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी

वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा

परवीन शाकिर

झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'

आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए

ज़फ़र इक़बाल

सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह

कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे

मिर्ज़ा ग़ालिब

झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए

और मैं था कि सच बोलता रह गया

वसीम बरेलवी

जी बहुत चाहता है सच बोलें

क्या करें हौसला नहीं होता

बशीर बद्र

ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है

बात सच कहिए मगर यूँ कि हक़ीक़त लगे

फ़ुज़ैल जाफ़री

एक इक बात में सच्चाई है उस की लेकिन

अपने वादों से मुकर जाने को जी चाहता है

कफ़ील आज़र अमरोहवी

इश्क़ में कौन बता सकता है

किस ने किस से सच बोला है

अहमद मुश्ताक़

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम बुझे

रौशनी ख़त्म कर आगे अँधेरा होगा

निदा फ़ाज़ली

रात को रात कह दिया मैं ने

सुनते ही बौखला गई दुनिया

हफ़ीज़ मेरठी

आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ

वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएँ

उम्मीद फ़ाज़ली

जो देखता हूँ वही बोलने का आदी हूँ

मैं अपने शहर का सब से बड़ा फ़सादी हूँ

शकील शाह

सच के सौदे में पड़ना कि ख़सारा होगा

जो हुआ हाल हमारा सो तुम्हारा होगा

अंजुम रूमानी

सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ'ज़

हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती

जिगर मुरादाबादी

जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे रहे रहे

वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं

आबिद अदीब

समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स

ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया

पंडित दया शंकर नसीम लखनवी

वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है

क्यूँ ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ

शहज़ाद अहमद

कुछ लोग जो ख़ामोश हैं ये सोच रहे हैं

सच बोलेंगे जब सच के ज़रा दाम बढ़ेंगे

कमाल अहमद सिद्दीक़ी

वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी था

कि सच ही बोलता था जब भी बोलता था बहुत

अख़्तर होशियारपुरी

वफ़ा के शहर में अब लोग झूट बोलते हैं

तू रहा है मगर सच को मानता है तो

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले

मिरे मिज़ाज के सब मौसमों का साथी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'

और हर हुस्न इक हक़ीक़त है

हफ़ीज़ बनारसी

किस काम की ऐसी सच्चाई जो तोड़ दे उम्मीदें दिल की

थोड़ी सी तसल्ली हो तो गई माना कि वो बोल के झूट गया

आरज़ू लखनवी

कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा

सच कहिए तो ज़माना यारो नहीं है सच का

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

मैं सच तो बोलता हूँ मगर ख़ुदा-ए-हर्फ़

तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे

हिमायत अली शाएर

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