ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल 42
नज़्म 8
अशआर 47
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
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गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है
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दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
रात को शम्अ जला दी हम ने
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बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
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किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं
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पुस्तकें 3
चित्र शायरी 5
वीडियो 23
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