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रिफ़ाक़त हयात की कहानियाँ
ख़्वाह मख़्वाह की ज़िन्दगी
उसके बुलावे पर में इस दोज़ख़ में क्यों आ गया। गीली लकड़ियों के चुभने वाले धुवें से भरा ये छोटा सा होटल दोज़ख़ ही तो था। कितनी घुटन थी और गर्मी भी। न खिड़की न रोशन दान, बस एक दरवाज़ा। अंदर घुसने के लिए आँखें जल रही थीं। लगता था, पलकें झड़ जाएंगी। साँसों का
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बाल-साहित्य1947
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