- पुस्तक सूची 186143
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य2015
जीवन शैली22 औषधि932 आंदोलन297 नॉवेल / उपन्यास4855 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी13
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर68
- दीवान1465
- दोहा50
- महा-काव्य106
- व्याख्या201
- गीत62
- ग़ज़ल1193
- हाइकु12
- हम्द47
- हास्य-व्यंग37
- संकलन1603
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात692
- माहिया19
- काव्य संग्रह5066
- मर्सिया384
- मसनवी848
- मुसद्दस58
- नात568
- नज़्म1253
- अन्य76
- पहेली16
- क़सीदा190
- क़व्वाली17
- क़ित'अ65
- रुबाई300
- मुख़म्मस16
- रेख़्ती13
- शेष-रचनाएं27
- सलाम35
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा20
- तारीख-गोई30
- अनुवाद74
- वासोख़्त26
संपूर्ण
परिचय
ई-पुस्तक203
कहानी233
लेख40
उद्धरण107
लघु कथा29
तंज़-ओ-मज़ाह1
रेखाचित्र24
ड्रामा59
अनुवाद2
वीडियो43
गेलरी 4
ब्लॉग5
अन्य
अनुवाद28
उपन्यासिका1
पत्र10
सआदत हसन मंटो के रेखाचित्र
मंटो
मंटो के मुताल्लिक़ अब तक बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। इसके हक़ में कम और ख़िलाफ़ ज़्यादा। ये तहरीरें अगर पेश-ए-नज़र रखी जाएं तो कोई साहब-ए-अक़्ल मंटो के मुताल्लिक़ कोई सही राय क़ायम नहीं कर सकता। मैं ये मज़मून लिखने बैठा हूँ और समझता हूँ कि मंटो के
नूर जहाँ सुरूर जहाँ
मैंने शायद पहली मर्तबा नूर जहाँ को फ़िल्म 'ख़ानदान' में देखा था। उस ज़माने में वो बेबी थी। हालाँकि पर्दे पर वो हर्गिज़ हर्गिज़ इस क़िस्म की चीज़ मालूम नहीं होती थी। उसके जिस्म में वो तमाम ख़ुतूत, वो तमाम क़ौसें मौजूद थीं जो एक जवान लड़की के जिस्म में
इस्मत चुग़ताई
आज से तक़रीबन डेढ़ बरस पहले जब मैं बंबई में था, हैदराबाद से एक साहिब का डाक कार्ड मौसूल हुआ। मज़मून कुछ इस क़िस्म था, “ये क्या बात है कि इस्मत चुग़ताई ने आपसे शादी न की? मंटो और इस्मत। अगर ये दो हस्तियाँ मिल जातीं तो कितना अच्छा होता, मगर अफ़सोस कि
मीरा साहब
ये सन सैंतीस का ज़िक्र है। मुस्लिम लीग रू-बा-शबाब थी। मैं ख़ुद शबाब की इब्तिदाई मंज़िलों में था। जब ख़्वाह-मख़्वाह कुछ करने को जी चाहता था। इस के अलावा सेहत मंद था, ताक़त वृथा। और जी में हरवक़त यही ख़ाहिश तड़पती थी कि सामने जो क़ुव्वत आए इस से भिड़ जाऊं।
मुरली की धुन
अप्रैल की तेईस या चौबीस थी। मुझे अच्छी तरह याद नहीं रहा। पागलख़ाने में शराब छोड़ने के सिलसिले में ज़ेर-ए-इलाज था कि श्याम की मौत की ख़बर एक अख़बार में पढ़ी। उन दिनों एक अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत मुझ पर तारी थी। बेहोशी और नीम बेहोशी के एक चक्कर में फंसा हुआ
तीन गोले
हसन बिल्डिंग्ज़ के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे, मैं ग़ौर से उनकी तरफ़ देख रहा था और मीराजी की बातें सुन रहा था। उस शख़्स को पहली बार मैंने यहीं देखा। ग़ालिबन सन चालीस था। बाम्बे छोड़ कर मुझे दिल्ली आए कोई ज़ियादा ‘अर्सा नहीं गुज़रा
चराग़ हसन हसरत
मौलाना चराग़ हसन हसरत जिन्हें अपनी इख़्तिसार पसंदी की वजह से हसरत साहब कहता हूँ। अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत के मालिक हैं। आप पंजाबी मुहावरे के मुताबिक़ दूध देते हैं मगर मेंगनियां डाल कर। वैसे ये दूध पिलाने वाले जानवरों की क़बील से नहीं हैं हालाँ कि काफ़ी बड़े
अशोक कुमार
नज्मुल हसन जब देविका रानी को ले उड़ा। तो बंबई टॉकीज़ में अफ़रा-तफ़री फैल गई। फ़िल्म का आग़ाज़ हो चुका था। चंद मनाज़िर की शूटिंग पाया-ए-तकमील को पहुँच चुकी थी कि नज्मुल हसन अपनी हीरोइन को स्लोलाइड की दुनिया से खींच कर हक़ीक़त की दुनिया में ले गया। बम्बे
अख़्तर शीरानी से चंद मुलाक़ातें
ख़ुदा मालूम कितने बरस गुज़र चुके हैं। हाफ़िज़ा इस क़द्र-ए-कमज़ोर है कि नाम, सन और तारीख़ कभी याद ही नहीं रहते। अमृतसर में ग़ाज़ी अबदुर्रहमान साहब ने एक रोज़ाना पर्चा “मसावात” जारी किया। इस की इदारत के लिए बारी अलीग (मरहूम) और अबुल आला चिश्ती अल-सहाफ़ी (हाजी
किश्त-ए-ज़ाफ़रान
“लाइट्स ऑन... फ़ैन ऑफ़... कैमरा रेडी... शॉर्ट मिस्टर जगताप।!” “स्टारटड” “सीन थ्री टी फ़ौर... टेक टेन।” “नीला देवी आप कुछ फ़िक्र ना कीजिए। मैं ने भी पेशावर का पेशाब है!” “कट कट” लाइट्स ऑन हुईं। वी एच. डेसाई ने राइफ़ल एक तरफ़ रखते हुए
आगा हश्र से दो मुलाकातें
तारीखें और सन मुझे कभी याद नहीं रहे, यही वजह है कि ये मज़मून लिखते वक़्त मुझे काफ़ी उलझन हो रही है। ख़ुदा मालूम कौन सा सन था। और मेरी उम्र क्या थी, लेकिन सिर्फ इतना याद है कि ब-सद मुश्किल इंट्रैंस पास कर के और दो दफ़ा एफ़.ए. में फ़ेल होने के बाद मेरी तबीयत
सितारा
लिखने के मुआमले में, मैंने बड़े बड़े कड़े मराहिल तय किए हैं लेकिन मशहूर रक़्क़ासा और ऐक्ट्रस सितारा के बारे में अपने तास्सुरात कलमबंद करने में मुझे बड़ी हिचकिचाहट का सामना करना पड़ा है, आप तो उसे एक ऐक्ट्रेस की हैसियत से जानते हैं जो नाचती भी है और ख़ूब
परी चेहरा नसीम बनो
मेरा फ़िल्म देखने का शौक़ अमृतसर ही में ख़त्म हो चुका था। इस क़दर फ़िल्म देखे थे कि अब उन में मेरे लिए कोई कशिश ही न रही थी। चुनांचे यही वजह है कि जब मैं हफ़्ता-वार “मुसव्विर” को एडिट करने के सिलसिले में बंबई पहुंचा। तो महीनों किसी सिनेमा का रुख़
नर्गिस
अरसा हुआ। नवाब छतारी की साहबज़ादी तसनीम (मिसिज़ तसनीम सलीम) ने मुझे एक ख़त लिखा था, “तो क्या है आप का अपने बहनोई के मुतअल्लिक़? वो जो अंदाज़ा आप की तरफ़ से लगा कर लौटे हैं। तो मुझे अपने लिए शादी-ए-मर्ग का अंदेशा हुआ जाता है। अब मैं आप को तफ़्सील
रफ़ीक़ ग़ज़नवी
मालूम नहीं क्यूँ लेकिन मैं जब भी रफ़ीक़ ग़ज़नवी के बारे में सोचता हूँ तो मुझे मअन महमूद ग़ज़नवी का ख़याल आता है जिसने हिंदुस्तान पर सत्रह हमले किए थे जिनमें से बारह मशहूर हैं। रफ़ीक़ ग़ज़नवी और महमूद ग़ज़नवी में इतनी मुमासिलत ज़रूर है कि दोनों बुत-शिकन हैं। रफ़ीक़
बारी साहब
मुस्तबिद और जाबिर हुकमरानों का इबरतनाक अंजाम रूस के गली कूचों में सदा-ए-इंतिक़ाम ज़ारियत के ताबूत में आख़िरी कील इन तीन जली सुर्ख़ियों के कद-ए-आदम इश्तिहार अमृतसर की मुतअद्दिद दीवारों पर चस्पाँ थे। लोग ज़्यादा-तर सिर्फ़ ये सुर्ख़ियाँ ही पढ़ते
पारो देवी
“चल चल रे नौजवान” की नाकामी का सदमा हमारे दिल-ओ-दिमाग़ से क़रीब क़रीब मंद मिल हो चुका था। ज्ञान मुकर्जी, फ़िल्मिस्तान के लिए एक “प्रॉपगंडा” कहानी लिखने में एक अर्से से मसरूफ़ थे। कहानी लिखने लिखाने और उसे पास कराने से पेश्तर नलिनी जीवंत और उस
अनवर कमाल पाशा
अगर किसी स्टूडियो में आपको किसी मर्द की बुलंद आवाज़ सुनाई दे। अगर आपसे कोई बार-बार होंटों पर अपनी ज़बान फेरते हुए बड़े ऊंचे सूरों में बात करे, या किसी महफ़िल में कोई इस अंदाज़ से बोल रहे हैं जैसे वो सांडे का तेल बेच रहे हैं तो आप समझ जाएंगे कि वो हकीम अहमद
दीवान सिंह मफ़्तून
लुग़त में “मफ़्तून” का मतलब आशिक़ बयान किया गया है। अब ज़रा इस आशिक़-ए-ज़ार का हीला मुलाहिज़ा फ़रमाइये। नाटा क़द, भद्दा जिस्म, उभरी हुई तोंद, वज़नी सर जिस पर छिदरे खिचड़ी बाल जो केस कहलाने के हरगिज़ मुस्तहक़ नहीं। इकट्ठे किए जाएं तो ब-मुश्किल किसी कट्टर ब्रहमन
पुर-असरार नैना
शाहिदा जो कि मोहसिन अबदुल्लाह की फ़र्मांबरदार बीवी थी और अपने घर में ख़ुश थी इसलिए कि अलीगढ़ में मियां बीवी की मुहब्बत हुई थी और ये मुहब्बत उन दोनों के दिलों में एक अर्से तक बरक़रार रही। शाहिदा उस क़िस्म की लड़की थी जो अपने ख़ावंद के सिवा और किसी मर्द
नवाब काश्मीरी
यूं तो कहने को एक ऐक्टर था जिसकी इज़्ज़त अक्सर लोगों की नज़र में कुछ नहीं होती, जिस तरह मुझे भी महज़ अफ़्साना-निगार समझा जाता है यानी एक फ़ुज़ूल सा आदमी। पर ये फ़ुज़ूल सा आदमी उस फ़ुज़ूल से आदमी का जितना एहतिराम करता था, वो कोई बे-फ़ुज़ूल शख़्सियत, किसी बे-फ़ुज़ूल
के के
ये उस मशहूर ऐक्ट्रेस का नाम है जो हिंदुस्तान के मुतअद्दिद फिल्मों में आ चुकी है और आपने यक़ीनन उसे सीमीं पर्दे पर कई मर्तबा देखा होगा। मैं जब भी उस का नाम किसी फ़िल्म के इश्तिहार में देखता हूँ तो मेरे तसव्वुर में उस की शक्ल बाद में, लेकिन सबसे पहले
join rekhta family!
Jashn-e-Rekhta 10th Edition | 5-6-7 December Get Tickets Here
-
बाल-साहित्य2015
-