सहबा अख़्तर के शेर
अगर शुऊर न हो तो बहिश्त है दुनिया
बड़े अज़ाब में गुज़री है आगही के साथ
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मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
वो जिस की आरज़ू मुझे शाएर बना गई
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हमें ख़बर है ज़न-ए-फ़ाहिशा है ये दुनिया
सो हम भी साथ इसे बे-निकाह रखते हैं
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तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
चुप रहने की आदत ने कुछ और हमें बदनाम किया
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सुबूत माँग रहे हैं मिरी तबाही का
मुझे तबाह किया जिन की कज-अदाई ने
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मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
मैं साया हूँ मगर ख़ुद से जुदा हूँ
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'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
तेज़ हवा से लहर तो इक जौहड़ में भी आ जाती है
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दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
इस डगर को भी कोई राही दे
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शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सूरत न दे यक़ीन की इस एहतिमाल को
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मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर
लाला ओ गुल पर गुमाँ इक अजनबी तहरीर का
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बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा
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