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सरफ़राज़ नवाज़

1977 | आज़मगढ़, भारत

सरफ़राज़ नवाज़ के शेर

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आईना चुपके से मंज़र वो चुरा लेता है

तू सजाता है बदन जब कभी उर्यानी से

हम अपने शहर से हो कर उदास आए थे

तुम्हारे शहर से हो कर उदास जाना था

बे-सदा सी किसी आवाज़ के पीछे पीछे

चलते चलते मैं बहुत दूर निकल जाता हूँ

वो कोई आम सा ही जुमला था

तेरे मुँह से बुरा लगा मुझ को

बाप ज़ीना है जो ले जाता है ऊँचाई तक

माँ दुआ है जो सदा साया-फ़िगन रहती है

इस गए साल बड़े ज़ुल्म हुए हैं मुझ पर

नए साल मसीहा की तरह मिल मुझ से

तुम्हारे सच की हिफ़ाज़त में यूँ हुआ अक्सर

कि अपने-आप को झूटा बना लिया मैं ने

बदन-सराए में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ

चुका रहा हूँ किराया मैं चंद साँसों का

कितना दुश्वार है इक लम्हा भी अपना होना

उस को ज़िद है कि मैं हर हाल में उस का हो जाऊँ

मिरे बग़ैर कोई तुम को ढूँडता कैसे

तुम्हें पता है तुम्हारा पता रहा हूँ मैं

सफ़र कहाँ से कहाँ तक पहुँच गया मेरा

रुके जो पाँव तो काँधों पे जा रहा हूँ मैं

ख़ुदा करे कि वही बात उस के दिल में हो

जो बात कहने की हिम्मत जुटा रहा हूँ मैं

इश्क़ अदब है तो अपने आप आए

गर सबक़ है तो फिर पढ़ा मुझ को

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