सरवत हुसैन के शेर
सूरमा जिस के किनारों से पलट आते हैं
मैं ने कश्ती को उतारा है उसी पानी में
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भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा
मैं हार गया जंग मगर दिल नहीं हारा
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जिसे अंजाम तुम समझती हो
इब्तिदा है किसी कहानी की
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मौत के दरिंदे में इक कशिश तो है 'सरवत'
लोग कुछ भी कहते हों ख़ुद-कुशी के बारे में
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टैग : ख़ुदकुशी
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मिट्टी पे नुमूदार हैं पानी के ज़ख़ीरे
इन में कोई औरत से ज़ियादा नहीं गहरा
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टैग : औरत
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पाँव साकित हो गए 'सरवत' किसी को देख कर
इक कशिश महताब जैसी चेहरा-ए-दिलबर में थी
सोचता हूँ कि उस से बच निकलूँ
बच निकलने के ब'अद क्या होगा
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मिलना और बिछड़ जाना किसी रस्ते पर
इक यही क़िस्सा आदमियों के साथ रहा
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ये जो रौशनी है कलाम में कि बरस रही है तमाम में
मुझे सब्र ने ये समर दिया मुझे ज़ब्त ने ये हुनर दिया
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दो ही चीज़ें इस धरती में देखने वाली हैं
मिट्टी की सुंदरता देखो और मुझे देखो
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'सरवत' तुम अपने लोगों से यूँ मिलते हो
जैसे उन लोगों से मिलना फिर नहीं होगा
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बुझी रूह की प्यास लेकिन सख़ी
मिरे साथ मेरा बदन भी तो है
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ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजे
काम इस पल है तिरे जिस्म की उर्यानी से
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मैं आग देखता था आग से जुदा कर के
बला का रंग था रंगीनी-ए-क़बा से उधर
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शहज़ादी तुझे कौन बताए तेरे चराग़-कदे तक
कितनी मेहराबें पड़ती हैं कितने दर आते हैं
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हर सुब्ह निकलना किसी दीवार-ए-तरब से
हर शाम किसी मंज़िल-ए-ग़मनाक पे होना
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आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम
ये कौन गया मेरे बराबर से निकल कर
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टैग : बाम
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हुस्न-ए-बहार मुझ को मुकम्मल नहीं लगा
मैं ने तराश ली है ख़िज़ाँ अपने हाथ से
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इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
वो कौन थी जो रक़्स के आलम में मर गई
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टैग : बाम
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अपने अपने घर जा कर सुख की नींद सो जाएँ
तू नहीं ख़सारे में मैं नहीं ख़सारे में
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टैग : अंजाम
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क्यूँ गिरफ़्ता-दिल नज़र आती है ऐ शाम-ए-फ़िराक़
हम जो तेरे नाज़ उठाने के लिए मौजूद हैं
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टैग : विदाई
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मैं किताब-ए-ख़ाक खोलूँ तो खुले
क्या नहीं मौजूद क्या मौजूद है
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मिरे सीने में दिल है या कोई शहज़ादा-ए-ख़ुद-सर
किसी दिन उस को ताज-ओ-तख़्त से महरूम कर देखूँ
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सोचता हूँ दयार-ए-बे-परवा
क्यूँ मिरा एहतिराम करने लगा
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वो इक सूरज सुब्ह तलक मिरे पहलू में
अपनी सब नाराज़गियों के साथ रहा
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नई नई सी आग है या फिर कौन है वो
पीले फूलों गहरे सुर्ख़ लिबादों वाली
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अपने लिए तज्वीज़ की शमशीर-ए-बरहना
और उस के लिए शाख़ से इक फूल उतारा
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दश्त छोड़ा तो क्या मिला 'सरवत'
घर बदलने के ब'अद क्या होगा
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ले आएगा इक रोज़ गुल ओ बर्ग भी 'सरवत'
बाराँ का मुसलसल ख़स-ओ-ख़ाशाक पे होना
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टैग : बर्ग
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कभी तेग़-ए-तेज़ सुपुर्द की कभी तोहफ़ा-ए-गुल-ए-तर दिया
किसी शाह-ज़ादी के इश्क़ ने मिरा दिल सितारों से भर दिया
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मैं सो रहा था और मिरी ख़्वाब-गाह में
इक अज़दहा चराग़ की लौ को निगल गया
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मैं अपनी प्यास के हमराह मश्कीज़ा उठाए
कि इन सैराब लोगों में कोई प्यासा मिलेगा
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तेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी ऐ दिल
क्या ख़बर कौन नगर ले जाए
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उम्र का कोह-ए-गिराँ और शब-ओ-रोज़ मिरे
ये वो पत्थर है जो कटता नहीं आसानी से
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सियाही फेरती जाती हैं रातें बहर ओ बर पे
इन्ही तारीकियों से मुझ को भी हिस्सा मिलेगा
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क़िन्दील-ए-मह-ओ-मेहर का अफ़्लाक पे होना
कुछ इस से ज़ियादा है मिरा ख़ाक पे होना
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साया-ए-अब्र से पूछो 'सरवत'
अपने हमराह अगर ले जाए
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बहुत मुसिर थे ख़ुदायान-ए-साबित-ओ-सय्यार
सो मैं ने आइना ओ आसमाँ पसंद किए
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ये इंतिहा-ए-मसर्रत का शहर है 'सरवत'
यहाँ तो हर दर-ओ-दीवार इक समुंदर है
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आँखें हैं और धूल भरा सन्नाटा है
गुज़र गई है अजब सवारी यादों वाली
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ख़ुश-लिबासी है बड़ी चीज़ मगर क्या कीजिए
काम इस पल है तिरे जिस्म की उर्यानी से
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सुब्ह के शहर में इक शोर है शादाबी का
गिल-ए-दीवार, ज़रा बोसा-नुमा हो जाना
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ये कौन उतरा पए-गश्त अपनी मसनद से
और इंतिज़ाम-ए-मकान ओ सिरा बदलने लगा
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उसे भी याद रखना बादबानी साअतों में
वो सय्यारा कनार-ए-सुब्ह-ए-फ़र्दा आ मिलेगा
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