बाम शायरी
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया
ऐ काश हमारी क़िस्मत में ऐसी भी कोई शाम आ जाए
इक चाँद फ़लक पर निकला हो इक चाँद सर-ए-बाम आ जाए
हम ही उन को बाम पे लाए और हमीं महरूम रहे
पर्दा हमारे नाम से उट्ठा आँख लड़ाई लोगों ने
अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की
ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे
अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया
मैं जानता हूँ मकीनों की ख़ामुशी का सबब
मकाँ से पहले दर-ओ-बाम से मिला हूँ मैं
अल्लाह-रे उन के हुस्न की मोजिज़-नुमाइयाँ
जिस बाम पर वो आएँ वही कोह-ए-तूर हो
इक दास्तान अब भी सुनाते हैं फ़र्श ओ बाम
वो कौन थी जो रक़्स के आलम में मर गई
एक अंगड़ाई से सारे शहर को नींद आ गई
ये तमाशा मैं ने देखा बाम पर होता हुआ
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
तुम्हें ख़ाकसारों की क्या ख़बर कभी नीचे उतरे हो बाम से
आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम
ये कौन गया मेरे बराबर से निकल कर
मुझ को भी जागने की अज़िय्यत से दे नजात
ऐ रात अब तो घर के दर-ओ-बाम सो गए
वो सुब्ह को इस डर से नहीं बाम पर आता
नामा न कोई बाँध दे सूरज की किरन में
कोई भी सजनी किसी भी साजन की मुंतज़िर है न मुज़्तरिब है
तमाम बाम और दर बुझे हैं कहीं भी रौशन दिया नहीं है