शिकवा शायरी
इश्क़ की कहानी में शिकवे शिकायतों की अपनी एक जगह और अपना एक लुत्फ़ है। इस मौक़े पर आशिक़ का कमाल ये होता है कि वो माशूक़ के ज़ालिम-ओ-जफ़ा और उस की बे-एतिनाई का शिकवा इस तौर पर करता है कि माशूक़ मुद्दुआ भी पा जाए और आशिक़ बद-नाम भी न हो। इश्क़ की कहानी का ये दिल-चस्प हिस्सा हमारे इस इन्तिख़ाब में पढ़िए।
गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी
वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह
ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता
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कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
when does she ever heed my state
and that too then when I narrate
रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
वो मिन्नतों से कहें चुप रहो ख़ुदा के लिए
क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
from voicing my emotions, love makes me refrain
grievances come to my lips but silent there remain
मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
मोहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है
आरज़ू हसरत और उम्मीद शिकायत आँसू
इक तिरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई
सर अगर सर है तो नेज़ों से शिकायत कैसी
दिल अगर दिल है तो दरिया से बड़ा होना है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है
किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत
ख़ुद हम को मोहब्बत का सबक़ याद नहीं है
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
तू ने रोका भी था बंदे को ख़ता से पहले
हम को आपस में मोहब्बत नहीं करने देते
इक यही ऐब है इस शहर के दानाओं में
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ
what divinity was it that Nimrod once proclaimed?
Worship was no use to me, it did not compensate
सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना
यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं
आज उस से मैं ने शिकवा किया था शरारतन
किस को ख़बर थी इतना बुरा मान जाएगा
मेरी ही जान के दुश्मन हैं नसीहत वाले
मुझ को समझाते हैं उन को नहीं समझाते हैं
वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा
जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया
देखने वाला कोई मिले तो दिल के दाग़ दिखाऊँ
ये नगरी अँधों की नगरी किस को क्या समझाऊँ
हाँ उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
हाँ वही लोग जो अक्सर हमें याद आए हैं
इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ
ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ
शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं
फिर करोगे कभी इस मुँह से शिकायत मेरी
रौशनी मुझ से गुरेज़ाँ है तो शिकवा भी नहीं
मेरे ग़म-ख़ाने में कुछ ऐसा अँधेरा भी नहीं
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
किस से किस का गिला करे कोई
ज़रा सी बात थी अर्ज़-ए-तमन्ना पर बिगड़ बैठे
वो मेरी उम्र भर की दास्तान-ए-दर्द क्या सुनते
इश्क़ में शिकवा कुफ़्र है और हर इल्तिजा हराम
तोड़ दे कासा-ए-मुराद इश्क़ गदागरी नहीं
चाही थी दिल ने तुझ से वफ़ा कम बहुत ही कम
शायद इसी लिए है गिला कम बहुत ही कम
साफ़ इंकार अगर हो तो तसल्ली हो जाए
झूटे वादों से तिरे रंज सिवा होता है
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है
आगे मिरे न ग़ैर से गो तुम ने बात की
सरकार की नज़र को तो पहचानता हूँ मैं
though in my presence you did not converse with my foe
dearest, the aspect of your eye, I certainly do know
मुझे तुझ से शिकायत भी है लेकिन ये भी सच है
तुझे ऐ ज़िंदगी मैं वालिहाना चाहता हूँ