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ग़ज़ल 89
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शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को
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जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा
तिरे लबों पे मिरे लब हों ऐसा कब होगा
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जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
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सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
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शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
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दोहा 1
पुस्तकें 120
चित्र शायरी 26
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें दिन ढले यूँ तिरी आवाज़ बुलाती है हमें याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से रात के पिछले-पहर रोज़ जगाती है हमें हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मरहला नींदों से ख़ाली किया अश्कों से फिर भर दिया कासा मिरी आँख का और कहा कान में मैं ने हर इक जुर्म से तुम को बरी कर दिया मैं ने सदा के लिए तुम को रिहा कर दिया जाओ जिधर चाहो तुम जागो कि सो जाओ तुम ख़्वाब का दर बंद है