सालिम सलीम
ग़ज़ल 96
नज़्म 1
अशआर 54
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले
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तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को
सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए
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भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए
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इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे
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रास आती नहीं अब मेरे लहू को कोई ख़ाक
ऐसा इस जिस्म का पाबंद-ए-सलासिल हुआ मैं
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नअत 1
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