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महत्वपूर्ण पाकिस्तानी शायरात में विख्यात, अमरीका में प्रवास

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सरवत ज़ेहरा के शेर

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बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है

और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है

जाने वाले को चले जाना है

फिर भी रस्मन ही पुकारा जाए

ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है

ख़्वाहिशें हैं सदियों की उम्र तो ज़रा सी है

वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता

दर्द कैसा है जो मद्धम नहीं होने पाता

जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं

मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ

कहाँ पे खोलोगे दर्द अपना किसे कहोगे

कहीं छुपाओ, ये हाल ले कर कहाँ चले हो

दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली

तेज़ बहता है मगर कम नहीं होने पाता

अब तो सँवारने के लिए हिज्र भी नहीं

सारा वबाल ले के ग़ज़ल कर दिया गया

कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा

तमाम उम्र यूँही बे-ख़याल जागते रहे

कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ

इस आग को तो ख़ून में हल कर दिया गया

बस एक बार याद ने तुम्हारा साथ छू लिया

फिर इस के बाद तो कई जमाल जागते रहे

तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए

पुकारती हुई रुस्वाइयों में बैठी हूँ

मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है

किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ

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