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शुऐब शाहिद के हास्य-व्यंग्य
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे!
तो यूँ हुआ कि हम चार दोस्त पहुँचे दरगाह हज़रत निजामुद्दीन। इत्तिफ़ाक़-ए-राय से बस से चलना क़रार पाया। मैन रोड से बस से उतर कर जैसे ही उस मज़ार वाली गली का रुख़ किया, तो खु़द को ‘‘बाज़ार-ए-मिस्र’’ में पाया। जहाँ न आबरू महफ़ूज़ मालूम होती थी और न ही वॉलेट।
दुनिया देखेगी!
मेरे शहर के मुसलमानों में इन दिनों इज्तिमाअ् का ज़ोर है। एक तब्लीग़ी इज्तिमाअ, जिसकी तैयारी पिछले तक़रीबन तीन माह से चल रही है। और अब, जबकि इस सह-रोज़ा इज्तिमे में केवल दो रोज़ बाक़ी रह गए हैं, तक़रीबन दस हज़ार से ज़ियादा नौजवान रात-दिन इज्तिमा-गाह में
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में...!
यूँ तो दुनिया को अहद-ए-हाज़िर में सैकड़ों मसाइल दर-पेश हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग, मसला-ए-पोपूलेशन और मसला-ए-आब-ओ-हवा तो बहर-हाल फ़ेहरिस्त में हैं ही। एटमी और मसाइल-ए-जंग-ओ-जदल भी अहमियत के हामिल हैं। लेकिन फ़िल-वक़्त उस अज़ीम मसअला-ए-दीगर से रु-ब-रू कराना
मोअल्लिमाओं के नाम एक इंक़िलाबी पैग़ाम: स्वेटर बुनो!
पिछली पीढ़ी की बहुत सी रिवायात के तहफ़्फ़ुज़ और उनकी बका की ज़िम्मेदारी हमेशा ही आइंदा नस्लों पर होती है। हम नौजवान इस मुआशरे की एक नस्ल को धीरे-धीरे ख़त्म होते हुए देख रहें। और एक ये नई नस्ल है कि जो बुज़ुर्गों की रिवायात का फंदा अपने गले में नहीं डालना
गुड़ गुड़ गुड़ आलामून-गुड़ गुड़ गुड़ तालामून
आज कई दिन के बाद अपने शहर आया तो सोचा तरावीह की नमाज़ उसी मस्जिद में पढ़ी जाए जिसमें मेरे ज़ियादातर दोस्त पढ़ते हैं। मस्जिद के बाहर दूर-दूर तक सिर्फ़ बाइकों और कारों का इस तरह हुजूम था कि लगा कि जैसे मायावती की रैली में आया हूँ और हेलीकॉप्टर बस उतरने
अल-अमान...! अल-हफ़ीज़...!
लीजिए पहुँच गए। अभी पूरा एक घण्टा बाक़ी था बस के चलने में। ये एक अपनी तरह की अकेली बस है जो दिल्ली से मेरे शहर के लिए चलती है। ईद की वजह से एक घण्टा पहले भी बस तक़रीबन आधी भर चुकी थी। मैं जैसे ही बस में दाख़िल हुआ एक बुज़ुर्ग चिल्लाए, देख के, देख के...!
आब-ए-रवाँ
बस में खिड़की से लगा मैं रोडवेज़ बसों की तंग-दामनी पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र ही कर रहा था कि बस अचानक एक तेज़ झटके से रुक गयी। बस में सवार दर्जनों ज़बानों पर मुश्तरका तौर पर मुग़ल्लिज़ात का विर्द सा हुआ। मैंने खिड़की से ज़रा झाँक कर जो देखा तो कुछ नज़र ना आया।
हुस्न-ए-जमाल-ए-यार
मैं गालियाँ नहीं देता। या यूँ कहिए, कि दे ही नहीं सकता। दरअसल गालियों के मुआमले में मेरा इल्म कभी ‘‘बद-तमीज़’’ और ‘‘अबे साले’’ से आगे न बढ़ सका। न गालियों के आदाब से शनासाई है और न उनके सही उर्दू तलफ़्फ़ुज़ ही से कोई वाक़फ़ियत। कई मर्तबा लोगों को जाह-ओ-जलाल
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