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सर सय्यद अहमद ख़ान के उद्धरण
बे-इल्मी मुफ़्लिसी की माँ है। जिस क़ौम में इल्म-ओ-हुनर नहीं रहता वहाँ मुफ़्लिसी आती है और जब मुफ़्लिसी आती है तो हज़ारों जुर्मों के सरज़द होने का बाइस होती है।
(तक़रीर-ए- जलसा-ए-अज़ीमाबाद पटना, 26 मई)
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हम लोग आपस में किसी को हिंदू, किसी को मुसलमान कहें मगर ग़ैर-मुल्क में हम सब नेटिव (Native) यानी हिन्दुस्तानी कहलाए जाते हैं। ग़ैर-मुल्क़ वाले ख़ुदा-बख़्श और गंगा राम दोनों को हिन्दुस्तानी कहते हैं।
(तक़रीर-ए-सर सय्यद जो अंजुमन इस्लामिया, अमृतसर के ऐडरेस के जवाब में 26 जनवरी 1884 ई. को की गई)
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लहजा: इसको भी तहज़ीब में बड़ा दख़ल है। अक्खड़ लहजा इस क़िस्म की आवाज़ जिससे शुब्हा हो कि आदमी बोलते हैं या जानवर लड़ते हैं, ना-शाइस्ता होने की निशानी है।
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बड़े बड़े हकीम और आलिम, वली-ओ-अब्दाल, नेक-ओ-अक़्ल-मंद, बहादुर-ओ-नाम-वर एक गँवार आदमी की सी सूरत में छुपे हुए होते हैं मगर उनकी ये तमाम खूबियाँ उम्दा तालीम के ज़रिए से ज़ाहिर होती हैं।
(तहज़ीब-उल-अख़्लाक़ बाबत यकुम शव्वाल 1289 हिज्री)
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सबसे बड़ा ऐब हम में ख़ुद-ग़रज़ी का है और यही मुक़द्दम सबब क़ौमी ज़िल्लत और ना-मुहज़्ज़ब होने का है। हम में से हर एक को ज़रूर है कि रिफ़ाह-ए-आम का जोश दिल में पैदा करें और यक़ीन जानें कि ख़ुद-ग़रज़ी से तमाम क़ौम की और उसके साथ अपनी भी बर्बादी होगी।
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जो बातें हमारे मुख़ालिफ़ हमारी निसबत मंसूब करते हैं, हम उस से ज़ियादा इल्ज़ाम के लायक़ हैं। फ़र्ज़ करो वो बातें हम में न हों मगर और बातें उस से भी ज़ियादआ बद-तर हम में मौजूद हैं।
(तहज़ीब-उल-अख़्लाक़, यकुम रजब 1290 हिज्री)
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मैं अपनी ज़बान से वो मुराद लेता हूँ जो किसी मुल्क में इस तरह पर मुस्तामल हो कि हर शख़्स उस को समझता हो और वो उस में बातचीत करता हो। ख़्वाह वो उस मुल्क की असली ज़बान हो या न हो और उसी ज़बान पर मैं वरनेकुलर के लफ़्ज़ का इस्तिमाल करता हूँ।
(तक़रीर -ए-बनारस, 20 सितंबर 1867)
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हमारे कलाम में वो अल्फ़ाज़ जो मोहज़्ज़िबाना गुफ़्तगू में होते हैं, निहायत कम मुस्तामल हैं और इसलिए उसकी इस्लाह की बहुत ज़रूरत है।
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रायों के बंद रहने से तमाम इन्सानों की हक़-तल्फ़ी होती है और कुल इन्सानों को नुक़्सान पहुँचता है और न सिर्फ़ मौजूद इन्सानों को, बल्कि उनको भी जो आइन्दा पैदा होंगे।
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