युसूफ़ जमाल के शेर
क़ातिल तो सीना तान के चलते रहे यहाँ
जो बे-गुनह थे उन से हवालात भर गए
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जब मैं कच्चा फल था तो महफ़ूज़ था मैं
अब जो पका तो मुझ पे निशाना लगता है
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वक़्त की महरूमियों ने छीन ली मेरी ज़बान
वर्ना इक मुद्दत तलक मैं ला-जवाबों में रहा
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पूछे जो ज़िंदगी की हक़ीक़त कोई 'जमाल'
तो चुटकियों में रेत उड़ा कर उसे दिखा
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बौना था वो ज़रूर मगर इस के बावजूद
किरदार के लिहाज़ से क़द का बुलंद था
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ढूँडते हो क्यूँ जली तहरीर के असबाक़ में
मैं तो कोहरे की तरह धुँदले निसाबों में रहा
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