एक दिन सुबह हमारे आँगन में एक वासुदेव आया। सर पर मोर के परों वाली टोपी, बदन पर एक लंबा घेरदार जुब्बा, कंधे पर रंग बिरंगा फटा हुआ अँगोछा और पैर में एक फटा हुआ जूता। ऐसा उसका ठाठ था। एक हाथ से करताल बजाते हुए वो गाता रहा।
“पंढरी के विठोबा
आनंदी के ग्यानोबा
जीजूरी के खंडोबा
मेरा नमन क़ुबूल हो”
वासुदेव को देखते ही हमारी बिन्नी बहुत घबराई। वो दौड़ती-दौड़ती मेरे पास आई और मुझसे चिमट कर कहने लगी,
“भय्या, मुझे ना उस आदमी से डर लगता है।”
मैंने हंस कर कहा, “बिन्नी, वो वासुदेव है, अरे वो कुछ नहीं करेगा।”
बिन्नी के डरे हुए चेहरे को देख कर वासुदेव को लुत्फ़ आया। उसने अपनी टोपी से मोर का एक पंख निकाल कर बिन्नी की तरफ़ बढ़ाया। बिन्नी का डर दूर हो गया। वो फ़ौरन हंस दी और दौड़ते हुए जा कर उसने वासुदेव के हाथ से मोर का पर ले लिया। उस दिन से बिन्नी की वासुदेव से गहरी दोस्ती हो गई। वासुदेव रोज़ सुबह हमारे दरवाज़े पर आता। बिन्नी भी उसकी राह देखते हुए बरामदे में बैठी रहती। अगर उसे आने में देर हो जाती तो बिन्नी को लगता कि कुछ खो सा गया है।
कभी-कभी वासुदेव बिन्नी के लिए फूल ले आता, कभी खाने के लिए बेर ला कर देता। इस वजह से वो हम सब का बहुत अज़ीज़ हो गया था।
रोज़ाना पाबंदी से आने वाला वासुदेव कुछ दिनों बा'द ग़ायब हो गया। कोई महीना भर वो कहाँ रहा किसे पता।
शुरू के चार आठ दिन बिन्नी के लिए बड़े गिरां गुज़रे लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वो उसे भूल सी गई। अलबत्ता दरमयान में वो कभी-कभार माँ से पूछती, “माँ वासुदेव अब क्यों नहीं आता?”
कुछ दिनों बाद दीवाली थी। एक दिन हम सब नहा धो कर बैठे थे। बिन्नी अपनी गुड़िया से खेल रही थी कि इतने में वासुदेव अपनी करताल बजाते और गाना गाते आँगन में आया। उसे देखते ही बिन्नी दौड़ते हुए सीधे आँगन में पहुँची और उसके पास जा कर लाड से कहने लगी, “क्यों वासुदेव! तुम इतने दिनों कहाँ थे? मैं रोज़ाना तुम्हारा इंतिज़ार करती थी लेकिन तुम नहीं आए।”
वासुदेव ने हँसने की कोशिश की। उसका चेहरा देख कर लगता था कि वो बहुत दिनों बीमार रहा होगा।
“क्यों भई वासुदेव तुम बीमार तो नहीं थे?”
“हाँ मेरी माँ... मैं बहुत बीमार था।”
बिन्नी को बहुत रंज हुआ। उसने पूछा, “वासुदेव तुम्हें किसी ने दवा वग़ैरा दी या नहीं? तुम्हारा यहाँ कोई है कि नहीं?”
वासुदेव की आँखें भर आईं उसका गला रुँध गया। उसने कहा, “बेटी, मुझ ग़रीब को दवा कौन देगा? मेरी एक बेटी है तुम्हारे जितनी। बिलकुल तुम्हारी तरह लगती है वो। तुम्हें देखते ही मुझे उसकी याद आती है। लेकिन वो दूर गाँव में है। इसीलिए मैं रोज़ तुमसे मिलने आता हूँ।”
“लेकिन वासुदेव तुम उसे यहाँ क्यों नहीं ले आते? मैं उसे पहनने के लिए अपना स्कर्ट दूँगी। खेलने के लिए गुड़िया दूँगी और मैं उसके साथ ख़ूब खेलूँगी।”
वासुदेव ने कहा, “मैं उसे यहाँ ले आता लेकिन गाँव जाने के लिए मेरे पास पैसे कहाँ से आएँगे? जितने पैसे थे वो मेरी बीमारी में ख़त्म हो गए।” बिन्नी सीधे घर में गई और बाबा से कहने लगी, “बाबा, वासुदेव को अपनी लड़की को गाँव से लाने जाना है। आप उसे पैसे देंगे ना?”
बाबा ने कहा, “मैं पैसे दूँगा लेकिन फिर तुम्हें इस दीवाली पर पटाख़े और फुलझड़ी नहीं मिलेगी।”
बिन्नी ने कहा, “मुझे पटाख़े और फुलझड़ी न मिलें तो चल जाएगा। मुझे आप पैसे ही दे दीजिए।”
बिन्नी की बातें सुन कर बाबा को बहुत ख़ुशी हुई और उन्होंने उसे पैसे ला कर दिए। वासुदेव की आँखों से आँसू बहने लगे। पहले तो वो पैसे ले ही नहीं रहा था फिर बाबा ने कहा, “वासुदेव, न मत कहो। बिन्नी ने तुम्हें ये पैसे दिए हैं। तुम अब गाँव जाओ। अभी दीवाली आने में दो-तीन दिन बाक़ी हैं। अपनी लड़की से जा कर मिलो। वो बेचारी बच्ची तुम्हारी राह देख रही होगी। तुम दोनों आने वाली दीवाली ख़ुशी-ख़ुशी मनाओ।”
आसतीन से आँखें पोछते हुए वासुदेव ने पैसे लिए और चला गया। उस दीवाली पर बिन्नी ने पटाख़े नहीं छोड़े, फुल-झड़ियाँ नहीं जलाईं फिर भी ऐसी ख़ुशी से भरपूर दीवाली उसने कभी नहीं मनाई थी।
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