चचा की लॉट्री निकली
चचा राग अलापते हुए हवेली में दाख़िल हुए, “बेगम ज़रूर लाटरी निकलेगी मेरे नाम... आमीन तुम कहो, मैं ख़ुदा से दुआ करूँ...”
चचा की अलाप सुन कर चची ने पूछा, “ये लाटरी निगोड़ी कौन है बन्नो के अब्बा जिसके फ़िराक़ में आप इस तरह गला फाड़ रहे हैं?”
चचा सुर में थे। वहीं खटोले पर बैठ कर बोले, “ये भी ख़ूब रही। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। लोग चाँद और मिर्रीख़ पर धावा बोल रहे हैं और ये हव्वा की बेटी ऐसी हैं कि ये भी ख़बर नहीं कि लाटरी किस चिड़िया का नाम है। हद हो गई जहालत की। वल्लाह!”
“लेकिन सुनिए तो।” चची भन्ना कर बोलीं, “मैं तो ख़ैर जाहिल हूँ लेकिन आपने क़ाबिल हो कर कौन सा कारनामा दिखलाया है। दूर क्यों जाईए, आपका अँगरखा तक तो दुरुस्त नहीं और ये ख़ुद मेरी जूती की क्या हालत हो रही है। तीन शबरात तो काट चुकी। तली तक घिस के पानी हो चुकी... मैं कहती हूँ अगर अफ़यून-ख़ोरी, बटेर-बाज़ी, कबूतर-बाज़ी और पतंग-बाज़ी के बदले ज़रा हाथ पाँव चलाए होते तो ये बुरे दिन काहे को देखने में आते।”
“आहा!” चचा जल्दी से बोले “अब इस बुरे दिन को हमेशा के लिए रुख़स्त ही समझो। बहुत जल्द अच्छे दिन आ रहे हैं। अपनी क़सम इधर लाटरी निकली नहीं कि सारा दलिद्दर पार और पाँचों उंगलियाँ घी में।”
“ऐसा भी क्या।” चची बोलीं, “तब तो ये लाटरी निगोड़ी जादूई छड़ी है गोया।”
“अजी...” चचा बोले, “जादूई छुरी से भी बढ़ कर है बन्नो की माँ... और ये तो तुम सुन ही चुकी हो कि इसी लाटरी के चलते रमज़निया का बेटा रातों-रात लख-पति बन गया... मैं कहता हूँ कि जब रमज़निया शबरतिया जैसे कमज़र्फ़ को लाटरी निकल सकती है तो क्या मेरे ऐसे नजीबुत-तरफ़ैन को लाटरी न निकलेगी भला। ये और बात है कि आँखों पर पर्दा पड़ा रहा जो लाटरी लगाने का कभी ख़्याल ही न आया। बस पंद्रह रोज़ के अंदर दो लाख रुपय गिन कर मुझसे ले लो।”
“लेकिन फिर भी...” चची नाक पर उंगली रख कर बोलीं, “मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि कौन ऐसा अहमक़ है जो लाखों रुपय इस आसानी से दे देगा और वो भी आपके ऐसे अफ़यून-ख़ोर को।”
चची के इस तंज़ पर चचा के जज़बात को ऐसी ठेस लगी कि चले थूथना लटकाए हुए अपनी बैठक की तरफ़। मअन चची को एहसास हुआ कि ख़्वाह कुछ भी हो उन्हें चचा को अफ़यून-ख़ोर नहीं कहना चाहिए था।
दौड़ीं नंगे पाँव, मगर जब तक बैठक में दाख़िल हो चुके थे।
बैठक में लॉट्री के बारे ही में तबादला-ए-ख़्याल होता रहा। चचा के पड़ोसी शब्बन ख़ाँ भी मौजूद थे। उन्हीं के ज़रिये ये ख़बर मोअज़्ज़िन साहब, पेश इमाम साहब, मुंशी जी और मुख़तार साहब से होती हुई पूरे महल्ले में फैल गई कि चचा लॉट्री लगाने वाले हैं।
चचा को पूरा यक़ीन था कि लॉट्री उनके नाम ज़रूर निकलेगी इस लिए वो चाहते थे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इसकी ख़बर हो जाए कि चचा लॉट्री ख़रीदने जा रहे हैं। जब महल्ले के सैकड़ों लोग गली में जमा हो गए तो चचा एक जलवे की शक्ल में लॉट्री की टिकट ख़रीदने के लिए रवाना हुए। अब मरहला ये दरपेश हुआ कि चचा टिकट खरीदें तो किस सीरीज़ की। हींगन, कल्लन और छुट्टन के अलावा और लोगों की भी ये राय थी कि चचा हर सीरीज़ की एक-एक टिकट ख़रीद लें। लेकिन चचा कहते थे कि जब ये तस्लीम-शुदा है कि लॉट्री मेरे नाम से आनी ही है तो एक से ज़्यादा टिक्टें ख़रीदनी हिमाक़त और फिज़ूल-खर्ची नहीं तो क्या है। अगर यही पैसे अफ़यून में उठें तो हक़ भी लगे।
जब इस बात ने बहुत तूल पकड़ा तो चचा ने ये तजवीज़ पेश की कि अगर किसी को एतराज़ न हो तो मैं इस मुआमले को ब-ज़रिया-ए-इस्तिख़ारा तय करने की कोशिश करूँ, ताकि आप लोगों को मज़ीद ज़हमत न उठानी पड़े। चचा के इशारा करने पर जब हर तरफ़ ख़ामोशी छा गई तो आँख बंद कर के इस्तिख़ारा देखने के बाद चचा चहक कर बोले, “यारो, बस एक ही टिकट बी सीरीज़ की ख़रीदी जाए।”
चचा ने बटवा खोल कर एक रुपया टिकट के लिए बढ़ाया। दुकानदार ने तालियों की गूंज में लॉट्री की एक टिकट चचा के हवाले की जिसका नंबर महल्ले के क़रीब-क़रीब सब लोगों ने नोट कर लिया।
टिकट ले कर चचा शान से अकड़ते हुए घर की तरफ़ रवाना हुए जैसे दो लाख रूपों की थैली अपने साथ लिए जा रहे हों। घर पहुँच कर चचा को ये फ़िक्र लाहक़ हुई कि दो लाख मालियत की टिकट ब-हिफ़ाज़त-तमाम रखें तो कहाँ। चचा उसे अपनी पिपिया में रखना ग़ैर-महफ़ूज़ समझते थे। हींगन, कल्लन और छुट्टन पर भरोसा न था और चची को भी सुपुर्द न कर सकते थे क्यों कि ब-क़ौल चचा उनका क्या भरोसा। किस वक़्त ग़ुस्से में आ कर टिकट को चूल्हे में झोंक दें।
आख़िरश बहुत ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद लॉट्री की टिकट चची के सिंगार-दान में ख़ूब अच्छी तरह चस्पाँ कर के चचा ने इतमीनान का साँस लिया।
अब सूरत-ए-हाल ये थी कि चचा हर वक़्त सिंगार-दान के पास खड़े आईने में अपना मुँह देख रहे हैं या लॉट्री की टिकट पर नज़र है। कबूतरों को दाना देना, बटेर लड़ाना और तूती को सबक़ पढ़ाना तो भूल ही गए थे।
चचा चची को बावर्ची-ख़ाने में देख कर उनके पास ही पीड़ा ले कर बैठ जाते और वो वो हवाई क़िले बनाते कि चची आजिज़ आ जातीं। चचा कहते, “बन्नो की अम्माँ लाटरी के दो लाख रुपय मेरे हाथ में आए नहीं कि तुम्हारे लिए एक शानदार बंगला बनवा दूँगा और इस गली में संग-ए-मर-मर न बिछवा दिया। तो मेरा नाम बदल देना। ये महल्ले वाले भी क्या याद करेंगे।”
चचा की बकवास और हवाई क़िले बनाने का सिलसिला चलता रहा यहाँ तक कि लॉट्री के खुलने का दिन आ गया। उस रोज़ चचा की मुसर्रत की इंतिहा न थी। पूरे घर की सफ़ाई की गई, बैंड बजाने वाले बुलवाए गए। बड़े-बड़े शानदार फाटक तैयार हुए, हर रंग की झंडियाँ और क़ुमक़ुमे लगाए गए। बैठक में क़व्वालों ने क़व्वाली शुरू की और हवेली के अंदर मिरासनों ने ढोलक सँभाला। चचा मारे ख़ुशी के अंदर-बाहर एक किए हुए थे।
ये सिलसिला जारी ही था कि महल्ले का एक मनचला तालिब-इल्म दौड़ता हुआ आया और हाँपते हुए चचा से बोला, “मुबारक हो मीर साहब। दो लाख की लाटरी आप ही के नाम से निकली है। देखिए... यही ना नंबर है आपका?”
चचा ने ब-ग़ौर देखा तो वाक़ई ये नंबर उन्हीं का था। यक़ीन कैसे न करते भला जब कि पहले से भी ये तवक़्क़ो थी। ये ख़बर सुनते ही चचा की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गए। दौड़े हुए हवेली में आए और चची के आँचल से ख़ुशी के आँसू पोंछते हुए बोले, “आख़िर अल्लाह ने मेरी और तुम्हारी दुआ सुन ही ली। यानी दो लाख की लाटरी मेरे ही नाम से निकली है। ख़ुदा की क़सम अभी-अभी नंबर मिला कर आ रहा हूँ।”
चची की आँखें भी चमक उठीं। बोलीं, “माफ़ कीजिएगा बन्नो के अब्बा उस रोज़ लाटरी लगाने की बात पर नाहक़ मैंने आपको अफ़यून-ख़ोर कह दिया था। मैं माज़रत चाहती हूँ। अल्लाह पाक ये लाटरी आपको मुबारक करे। बहुत ज़माने बा'द आपके दिन आए हैं।”
लॉट्री निकलने की ख़बर सुन कर महल्ले के लोगों का ताँता बंध गया। चचा हर आने वाले की तवाज़ो इमरती से करते और झुक-झुक कर सलाम कर के कहते, “ये दौलत जो मुझे मिली वो आप ही लोगों के तुफ़ैल में है। अगर आप हज़रात की दुआएँ शामिल-ए-हाल न होतीं तो मेरा नजीबुत-तरफ़ैन होना भी कोई काम न आता। भई अल्लाह ने इज़्ज़त रखी और ख़ूब ही रखी!”
अब मरहला था टिकट को चची के सिंगार-दान से अलग करने का। जिसको चचा ने इस बुरी तरह चस्पाँ कर दिया था कि बहुत कोशिश करने पर भी सिंगार-दान से उसे अलग न किया जा सका। इस कोशिश में हिस्सा लेने वाले सैकड़ों लोग थे और हर एक की अलग-अलग राय थी। आख़िर में किसी ने ये राय दी कि इस क़दर झंझट से कहीं बेहतर है कि सिंगार-दान ही दाख़िल-ए-दफ़्तर कर दिया जाए। चचा को ये तजवीज़ बहुत मुनासिब मा’लूम हुई और वो उसके लिए फ़ौरन तैयार भी हो गए। लेकिन चची ने अपना सिंगार-दान देने से साफ़ इनकार कर दिया। लिहाज़ा मजबूरन टिकट को सिंगार-दान से छुड़ाने की कोशिश दुबारा शुरू की गई। इस जद्द-ओ-जहद में वो हज़रात भी शामिल हो गए जिन्होंने लॉट्री निकलने की ख़बर चचा को दी थी। ये हज़रात आगे बढ़ कर चचा से बोले, “मीर साहब आप नाहक़ इस क़दर परेशान हो रहे हैं। देखिए में अभी इसे आपके सामने सिंगारदान से अलग किए देता हूँ।”
उन्होंने ये कह कर लोहा गर्म कर के ब-ज़ाहिर टिकट को सिंगार-दान से छुड़ाना चाहा। इस कोशिश में टिकट जल कर राख हो गई और सिंगार-दान का शीशा चटक गया। वो हज़रत तो अपने मज़ाक़ को पाया-ए-तकमील तक पहुँचा कर चलते बने लेकिन दो लाख के टिकट का ये हश्र देख कर चचा चीख़ मार कर बेहोश हो जाते हैं।
जब चचा की तबिय्यत माइल-ब-सुकून हुई तो चचा के सर में चमेली के तेल की मालिश करते हुए चची बोलीं, “मैं पूछती हूँ कि इस लाटरी निगोड़ी का इतना सदमा क्यों है जब कि आप लाखों रुपय अफ़यून-ख़ोरी, बटेर-बाज़ी और मुर्ग़े-बाज़ी में झोंक चुके हैं तो ये कह कर दिल की तसल्ली दे लीजिए कि दो लाख रुपय लाटरी के भी न सही। लेकिन मेरे सिंगार-दान का शीशा आज ज़रूर चाहिए।
चचा जवाब क्या देते। सिर्फ़ चची के चेहरे का उतार चढ़ाओ देखते रहे। जब चची बावर्ची-ख़ाने की तरफ़ बढ़ गईं तो चचा तूती को ‘बन्नी जी भेजो’ का सबक़ पढ़ा कर अपनी बैठक में चले आए और अपने दोस्त हींगन, कल्लन और छुट्टन के साथ चुस्की लगाने में मशग़ूल हो गए।
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