दानियाल, दादा और जायसी
दिल्ली का ईस्ट आफ़ कैलाश खाते-पीते, पढ़े-लिखे लोगों का इलाक़ा है। उसी से मिला हुआ गढ़ी। गढ़ी में जो लोग रहते हैं वो इतने पैसे वाले नहीं हैं। ज़्यादा तालीम-याफ़्ता भी नहीं हैं। सुनते हैं गढ़ी पहले एक देहात था। अब भी देहात जैसा ही लगता है। मकान बहुत मामूली हैं। उनके छोटे-छोटे कमरे कम कराए में मिल जाते हैं। यही वजह है कि यहाँ बाहर से आने वाले बहुत से तालिब-ए-इल्म भी हैं।
दानियाल ईस्ट आफ़ कैलाश में रहते हैं। वो दिल्ली पब्लिक स्कूल की चौथी जमात में पढ़ते हैं। उनके दादा एक रिटायर्ड सरकारी अफ़्सर हैं। घर पर वो दानियाल को उर्दू ख़ुद पढ़ाते हैं। उनके घर के पास से एक सड़क नीचे ढलान पर उतरती है। ये गढ़ी में जाती है। सुबह-सुबह ये सड़क जाग उठती है। गढ़ी के बासी अपने-अपने काम धंदों के लिए निकल पड़ते हैं। कुछ बच्चे बस्ता लटकाए स्कूल जाते दिखाई देते हैं। ये दूसरी बात है कि गढ़ी में रहने वाले बच्चे महंगे स्कूल में नहीं पढ़ते।
दानियाल की बस थोड़ी सी दूर पर वाक़े चौड़ी सड़क पर आ कर रुकती है। दादा उन्हें वहाँ तक छोड़ कर आते हैं। गढ़ी से आने वाले लोगों की सारी रौनक़ रोज़ उनकी नज़र के सामने से गुज़रती है। एक दिन उन्हें दो लड़के दिखाई दिए। यही कोई सोला-सतरह बरस के। उन्हें दानियाल ने ज़रा दिलचस्पी से देखा। उनका रंग अजीब सा था। न गोरा, न काला, न साँवला। ज़रदी माइल, पीला-पीला सा। उनकी आँखें तिरछी थीं। क़द बहुत कम था। दानियाल ने ऐसी शक्ल-ओ-सूरत के लोग पहले नहीं देखे थे।
“दादा, ये लोग कुछ अजीब से नहीं हैं।” दानियाल से रहा न गया। वो दादा से पूछ ही बैठे।
“शायद ये नॉर्थ ईस्ट से आए हैं। तालिब-ए-इल्म मा’लूम होते हैं।” दादा ने कहा। लेकिन तुम पलट-पलट कर देखो मत। बुरी बात है।”
“नॉर्थ ईस्ट मतलब?”
तुमने स्कूल में हिन्दोस्तान का नक़्शा देख कर समझा है न? शाम को उर्दू पढ़ने बैठो, तो उसे निकाल लेना। नॉर्थ ईस्ट समझा दूँगा। उधर के लोग इसी नस्ल के होते हैं।”
दानियाल ने सर हिलाया। तब तक वो लड़के आगे बढ़ चुके थे।
दो-तीन दिन बाद वो लड़के फिर दिखाई दिए। इस मर्तबा दानियाल पलटे और उनकी तरफ़ देख कर चिल्लाए, “चंकी... नक-चपटे, नक-चपटे।” चंकी लड़कों के चेहरे पर कुछ घबराहट दिखाई दी और कुछ ग़ुस्सा भी।
दादा ने ख़फ़गी से दानियाल को देखा, लेकिन तब तक बस आ चुकी थी। दानियाल लपक कर बस पर चढ़ गए। तभी दो लड़कों ने बस की खिड़की से मुँह निकाला और चिल्लाए, “पीलिए-पीलिए!”
एक लड़का बोला, “च्यू, दिल्ली में क्या कर रहे हो... Go back to your jungles.”
शाम को दादा ने दानियाल का होमवर्क कराया। एक सफ़हा उर्दू की किताब पढ़ाई। फिर उनके साथ शाम की चाय पीने बैठे। चाय के साथ गर्म-गर्म पकौड़े थे और सूजी का हलवा। दानियाल के लिए चाय की जगह एक गिलास दूध था। चाय का घूँट भरते हुए दादा ने कहा, “दानियाल आज सुबह आपने उन लड़कों पर आवाज़े कसे थे।”
“मतलब?”
“मतलब ये कि आपने उन्हें चिढ़ाया था।”
“किस को दादा?”
“वही जिनके बारे में एक दिन आपको बताया था कि वो नॉर्थ ईस्ट के होंगे।”
“अरे वो, उन्हें चिढ़ाया कहाँ था। उन्हें तो सब ही नक-चपटा कहते हैं। दादा उनकी सूरतों अजीब सी नहीं होतीं? चिम्पान्ज़ी जैसी।”
दादा के चेहरे पर ख़फ़गी देख कर वो जल्दी से बोले, “ये हम नहीं कहते। ये दूसरे कहते हैं।”
“दानियाल अगर कोई ग़लत काम बहुत से लोग करने लगें तो वो सही नहीं हो जाता और कोई अजीब सा भी इसलिए नहीं हो जाता कि वो तुमसे अलग तरह का है।”
दानियाल चुप रहे...
दादा ने कहा, “आपने मलिक मुहम्मद जाइसी का नाम सुना है?”
“नहीं दादा।” फिर जल्दी से बोले, “आपके दोस्त हैं क्या?”
दादा मुस्कुराए, लेकिन मुस्कुराहट दबा कर संजीदगी से बोले, “ये एक सूफ़ी थे। अवधी में शायरी करते थे। अब आप पूछेंगे सूफ़ी कौन और अवधी क्या तो आपके पूछने से पहले बता दें। सूफ़ी वो लोग होते हैं जो बहुत सादगी से रहते हैं। ये सबसे मुहब्बत करते हैं। दूसरे को भी मुहब्बत करना सिखाते हैं और अवधी एक बोली है। ये यू. पी. के अवध के इलाक़े में आज भी बोली जाती है। मलिक मुहम्मद जाइसी आपके दादा के दोस्त नहीं हैं वो लगभग पाँच सौ बरस पहले गुज़रे हैं। पाँच सौ समझते हैं आप?”
“कम ऑन दादा... अब हम पाँच सौ नहीं समझेंगे। फाईव हंडर्ड।” उन्होंने आँखें फैलाईं, “ये तो बहुत हो गया।”
“मलिक मुहम्मद बहुत काले थे। उनका चेहरा दाग़ों से भरा हुआ था। उनकी मुलाक़ात शेर शाह से हुई तो वो उनको देख कर हंस पड़ा। पता है शेर शाह कौन था?”
“नहीं दादा।”
“शेरशाह उस वक़्त का बादशाह था। तब हिन्दोस्तान में बादशाह हुआ करते थे। आगे तुम तारीख़ में पड़ोगे।” अब दानियाल दिलचस्पी से सुन रहे थे।
पता है उन्होंने क्या कहा? उन्होंने अपनी अवधी ज़बान में कहा,
“मौ कू हैसे कि कोहर है”
“मतलब समझे? इसका मतलब ये हुआ कि मुझ पर हंस रहे हो कि मुझको बनाने वाले कुम्हार पर। कुम्हार यानी अल्लाह जिसने मुझे बनाया। बादशाह काँप उठा। उसने गिड़गिड़ा कर माफ़ी माँगी।”
दानियाल बुत बने सुनते रहे।
“और पता है बेटा, उन्हीं मलिक मुहम्मद जाइसी ने अल्लाह के बारे में क्या कहा है? उन्होंने कहा है,
बिधना के मारग हैं ते ते,
सरग निखत तन रोवाँ जे ते।
यानी अल्लाह तक पहुँचने के उतने ही रास्ते हैं जितने आसमान पर तारे। या जिस्म पर रोएँ। ये बात कहने का तरीक़ा है मतलब ये है कि इन्सान अपने-अपने तरीक़े से मालिक तक पहुँचने की कोशिश करता है। अगर कोई तुमसे अलग दिखाई देता है तो वो भी अल्लाह का बंदा है। कोई तुमसे अलग तरीक़े से इबादत करता है तो वो भी अल्लाह का बंदा है।”
“पर, दादा। थोड़ा बहुत चिढ़ाना इतनी बुरी बात तो नहीं...”
“अगर आप खेल-खेल में किसी दोस्त को चिढ़ाएँ तो बेशक नहीं लेकिन किसी को कम-तर समझ कर चिढ़ाएँ तो बुरी ही नहीं, बहुत बुरी बात है। याद रखिए, मामूली चिड़ कभी-कभी गहरी नफ़रत में बदल जाती है।”
“आई ऐम सॉरी, दादा।” दानियाल ने धीरे से कहा।
“सॉरी आप उन लड़कों से कहिएगा जब वो अगली बार मिलें।”
“जी दादा और हम मलिक मुहम्मद जाइसी की शायरी भी पढ़ेंगे।”
“जब आप कुछ और बड़े हो जाएँगे तो हम ख़ुद आपको पढ़ाएँगे और अवधी के एक और अज़ीम शायर तुलसी दास को भी। याद रखिए आप बड़े हो कर कुछ बनें, ज़बान और अदब से ज़रूर जुड़े रहिएगा। अदब आपको इन्सान से जोड़ेगा।”
“और हाँ।” दादा ने हंस कर कहा। ज़रा दूध पी लीजिए। गच्चा देने की कोशिश कर रहे हैं। मम्मी से डाँट खाने का इरादा है क्या?”
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.