काफ़ी दिनों की बात है। एक शहर में दो भाई रहते थे। उनका क़द एक जैसा था, अलबत्ता रंगत एक जैसी नहीं थी। एक गोरा चिट्टा था और दूसरा साँवले रंग का।
गोरे भाई का नाम अश्फ़ाक़ और साँवले भाई का नाम शफ़ीक़ था। दोनों भाईयों की आदात में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ था। अश्फ़ाक़ बहुत मेहनती और वक़्त का पाबंद था। जब कि शफ़ीक़ बहुत सुस्त था। अश्फ़ाक़ में अख़्लाक़ी खूबियाँ भी थीं। वो किसी के एहसान पर उसका शुक्रिया अदा करना ना भूलता था, और शफ़ीक़ अक्सर ऐसी बातों से कन्नी कतराता था। अश्फ़ाक़ उसे इस आदत पर टोकता और कहता कि ‘‘जब लोग तुम्हारे साथ ख़ुशअख़्लाक़ी से पेश आते हैं, तो तुम्हारा भी फ़र्ज़ है कि उन लोगों का शुक्रिया अदा करो।’’
शफ़ीक़ इस पर झुँझला कर रह जाता और कहता
‘‘बस-बस चुप रहो। मैं शुक्रिया अदा कर दिया करूँगा’’
और फिर आदत के मुताबिक़ भूल जाता। अम्मी भी शफ़ीक़ को उसकी आदत पर झिड़क देतीं, मगर वो ख़ामोश रहता और कभी कभी फ़क़त इतना कह देता।
‘‘अम्मी, मेरे पास वक़्त नहीं होता कौन लोगों का शुक्रिया अदा करता रहे।’’
ईद से चंद रोज़ पहले अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ को दोस्तों और रिश्तेदारों की तरफ़ से तोहफ़े वसूल हुए। उन्हें एक ही जैसे तहाइफ़ के पार्सल वसूल हुए, क्योंकि उनके दादा दादी और चचा दूसरे शहर में रहते थे।
चचा ने उन्हें एक एक नन्ही मुन्नी रेल-गाड़ी, आंटी ने उन्हें एक एक लड्डू और दादा और दादी अम्मां ने उन्हें टॉफ़ियों और मिठाईयों के पैकेट भेजे।
अम्मी ये तहाइफ़ देखकर बहुत ख़ुश हुईं और कहा।
‘‘अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़, तुम दोनों बहुत ख़ुश-क़िस्मत हो। तुम्हें इतने ढेर सारे खिलौने और तोहफ़े मिले हैं, तुम्हें चाहिए कि उन्हें सँभाल कर रखो।’’
अश्फ़ाक़ ने कहा ‘‘अम्मी मैंने तो पिछली ईद के तोहफ़े भी सँभाल कर रखे हुए हैं।’’
अम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘मगर मैं तुम्हें नहीं कह रही। मैं तो शफ़ीक़ से कह रही हूँ जो अपने खिलौने जल्द ही तोड़ देता है।’’
थोड़ी देर के बाद अम्मी ने कहा
‘‘तुम दोनों भाईयों का फ़र्ज़ है कि जिस जिसने तुम्हें तोहफ़े इरसाल किए हैं, उन्हें तुम शुक्रिये के ख़त लिखो।’’
शफ़ीक़ फ़ौरन बोल पड़ा ’’अम्मी, शुक्रिये के ख़त लिखने का फ़ायदा?’’
ये बात सुनकर अम्मी ने कहा।
‘‘बेटे शुक्रिया अदा करने से इन्सान के अख़्लाक़ का पता चलता है। शुक्रिया के ख़त लिखने का एक फ़ायदा तो ये होता है कि दूसरे आदमी को इल्म हो जाता है कि उसके भेजे हुए तोहफ़े तुम्हें मिल गए हैं और दूसरे ये कि तुम बड़े बा-अख़्लाक़ हो।’’
अम्मी की बात सुनकर शफ़ीक़ ला-जवाब हो गया। फिर दोनों भाई ये वा’दा कर के चले गए कि वो ईद के तोहफ़े भेजने वालों को शुक्रिया के ख़त लिखेंगे
शाम हो चुकी थी। खाना तय्यार होने में अभी एक घंटा बाक़ी था। अश्फ़ाक़ ने सोचा
‘‘क्यों ना इस वक़्त शुक्रिया के ख़त ही लिख दिए जाएँ।’’
वो अपने कमरे में चला गया और तोहफ़े भेजने वालों को ख़त लिखने लगा। सबसे पहले उसने चचा को शुक्रिये का ख़त लिखा। फिर आंटी को और आख़िर में दादा और दादी अम्मां को प्यार और मोहब्बत भरे ख़त लिखे वो ख़त लिख ही रहा था कि शफ़ीक़ कमरे में आगया। अश्फ़ाक़ ने उस से कहा
‘‘तुम भी ख़त लिख दो।’’
शफ़ीक़ भन्ना के बोला।
‘‘मैं इस वक़्त बैडमिंटन खेलने जा रहा हूँ। शुक्रिये के ख़त वापसी पर लिखूँगा’’
शफ़ीक़ खेल कर वापस आया तो बहुत थका हुआ था। उसने खाना खाया और बिस्तर पर लेट गया। उसे जल्दी ही नींद आगई। दूसरे दिन सुब्ह उठा, तो अश्फ़ाक़ के लिखे हुए ख़त अम्मी के सामने पड़े थे। अम्मी ने शफ़ीक़ की तरफ़ देखा तो वो जान छुड़ाने के अंदाज़ में बोलाः
‘‘अम्मी, मैं ये ख़त स्कूल से वापसी पर ज़रूर लिख दूँगा’’
स्कूल से छुट्टी के बाद शफ़ीक़ कुछ देर के लिए सो गया। फिर जागा, तो सह-पहर बीत रही थी। वो मुँह हाथ धोकर खेलने के लिए ग्रांऊड में चला गया और इस रात भी बड़े मज़े से सौ रहा।
अम्मी ने अश्फ़ाक़ के लिखे हुए ख़त पोस्ट करवा दिए थे। अगले दिन ये ख़त चचा, आंटी, दादा और दादी अम्मां को वसूल हो गए। वो ये ख़त पढ़ कर बहुत ख़ुश हुए। एक बात की उन्हें हैरानी भी थी कि शफ़ीक़ ने उन्हें कोई ख़त नहीं लिखा था। उधर शफ़ीक़ ये ख़त लिखने भूल गया था, क्योंकि कि वो वक़्त पर काम का आदी नहीं था।
इसी दौरान अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ की साल गिरह का दिन आगया। 22 मार्च की सुब्ह ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। अश्फ़ाक़ और शफ़ीक़ रात की पार्टी के मुंतज़िर थे कि किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। शफ़ीक़ ने बढ़कर दरवाज़ा खोला, तो सामने डाकिया खड़ा था उसने शफ़ीक़ से कहा।
‘‘अश्फ़ाक़ के नाम तोहफ़ों के कुछ पार्सल आए हैं।’’
‘‘क्या मेरा भी कोई तोहफ़ा आया है?’’
शफ़ीक़ ने धड़कते दल के साथ सवाल किया, और डाकिए के इनकार पर वो ख़ामोशी से अंदर चला गया और अश्फ़ाक़ को भेज दिया। डाकिए ने अश्फ़ाक़ को सालगिरा की मुबारकबाद दी और कहा।
‘‘क्या इस बार अकेले आपकी सालगिरा मनाई जा रही है?’’
अश्फ़ाक़ ने कहा। ‘‘नहीं तो।’’
डाकिए ने कहा। ‘‘आज सिर्फ़ आपके नाम तोहफ़े आए हैं।’’ ये कह कर डाकिए ने सारे पार्सल अश्फ़ाक़ के हाथों में थमा दिए। अश्फ़ाक़ ख़ुशी से फूले नहीं समा रहा था। वो तोहफ़े लेकर सीधा अम्मी के पास आया और कहने लगा। ‘‘मेरे नाम बहुत से तोहफ़े आए हैं।’’
अम्मी ने पूछा ‘‘शफ़ीक़ के लिए कोई तोहफ़ा नहीं आया?’’
अश्फ़ाक़ ने जवाब दिया।
‘‘अम्मी, सब पार्सलों पर तो मेरा नाम लिखा हुआ है। मैं उन्हें खोल कर देखता हूँ शायद उनमें शफ़ीक़ के लिए भी तोहफ़े रखे गए हूँ।’’
अश्फ़ाक़ ने जो पार्सल खोले, तो कोई भी तोहफ़ा शफ़ीक़ के लिए नहीं था। इन तहाइफ़ के साथ साथ एक ख़त भी था, जिसमें लिखा था, कि तुम्हारी तरफ़ से शुक्रिये का ख़त मिला। तुम बहुत अच्छे लड़के हो। इस बार अपनी सालगिरा पर ये तोहफ़े क़ुबूल करो।’’
ये अलफ़ाज़ सुनकर शफ़ीक़ की आँखों में आँसू आगए। अम्मी ने उसे याद दिलाया और कहा। ‘‘तुमने शुक्रिये के ख़त नहीं लिखे थे। मुम्किन है चचा, आंटी, दादा और दादी अम्मां ने सोचा हो कि तुम्हें उनके तोहफ़े पसंद नहीं आए।’’
‘‘नहीं नहीं अम्मी, ये बात नहीं।’’ शफ़ीक़ ने कहा और चुपके से अपने कमरे में चला आया और सबको शुक्रिया के ख़तों में लिखा और ख़त देर से लिखने की माफ़ी भी मांगी।
चंद रोज़ बाद उसे भी वैसे ही ख़ूबसूरत तोहफ़े वसूल हुए। ये तोहफ़े शफ़ीक़ ने अम्मी को दिखाये और इस रोज़ दोनों भाईयों की सालगिरा दुबारा मनाई गई।
उनकी अम्मी ने दावत के वक़्त मेहमानों से कहाः
‘‘आज से शफ़ीक़ और अश्फ़ाक़ दोनों अच्छे बच्चे बन गए हैं।’’
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