हमें इनाम नहीं चाहिए
शाकिर साहब सुबह ही से ही गाड़ी की सफ़ाई-सुथराई में लगे हुए थे और अब दोपहर होने को आ गई थी। उनके तीनों बच्चे आक़िब, फ़हद और हानिया भी उनका हाथ बटा रहे थे। उनकी बीवी नसरीन किचन में खाना बनाने में मसरूफ़ थी और कभी-कभी खिड़की से बाहर झाँक कर उन्हें भी देख लेती थी।
कल उन्हें सुबह ही सुबह एक लंबे सफ़र पर निकलना था। बच्चों के स्कूलों की छुट्टियाँ हो गई थीं और शाकिर साहब ने सोचा था कि इन छुट्टियों में वो बच्चों को आबाई घर ले जाएँगे जहाँ बच्चों के दधियाली और नन्हियाली रिश्तेदार रहा करते थे। ये एक छोटा सा ‘ख़ुशहाल नगर’ नामी शह्र था और तक़रीबन ढाई सौ किलो मीटर की दूरी पर था।
इस प्रोग्राम के बनते ही उन्होंने मोबाइलों पर ख़ुशहाल नगर में तमाम रिश्तेदारों को अपनी आमद की इत्तिला दे दी थी। इस इत्तिला से नाना-नानी और दादा-दादी को तो ख़ुशी हुई ही थी, दूसरे रिश्तेदारों ने भी बड़ी मुसर्रत का इज़हार किया था। शाकिर साहब, उनकी बीवी नसरीन और उनके तीनों बच्चे बहुत अख़लाक़ वाले और दूसरों की हर बात का ख़्याल रखने वाले लोग थे, इसलिए तमाम रिश्तेदार उनसे बेहद मुहब्बत करते थे।
इस प्रोग्राम के बनने से बच्चों में ख़ुशी की एक लहर दौड़ गई थी क्योंकि उन्हें नाना-नानी, दादा-दादी और कज़नों से मिले काफ़ी अरसा बीत गया था। उन्होंने सफ़र की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। इस मक़सद के लिए शाकिर साहब ने भी दफ़्तर से एक हफ़्ते की छुट्टी ले ली थी। गाड़ी की सफ़ाई-सुथराई भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थी।
थोड़ी ही देर में गाड़ी की शक्ल बदल गई और वो चमचमाने लगी। उसकी निखरी-निखरी शक्ल देख कर शाकिर साहब ख़ुश दिली से मुस्कुराए और बोले, “भई कोई ता'रीफ़ करे या न करे, हम तो करेंगे। वाह गाड़ी की क्या शक्ल निकल आई है।”
फिर कुछ सोच कर उन्होंने कहा, “बस एक काम रह गया है, आज ऑफ़िस से आते हुए एक टायर पंक्चर हो गया था, मैंने डिग्गी में रखा फ़ालतू टायर गाड़ी में लगा दिया था। शाम को ख़राब टायर में पंक्चर लगवा लेंगे।”
“अब्बू... पंक्चर लगवाने मैं भी चलूँगा।” उनके छोटे बेटे फ़हद ने कहा।
शाकिर साहब ने अभी जवाब देने के लिए मुँह खोला ही था कि उनकी बेगम ने खिड़की में से सर निकाल कर इत्तिला दी कि खाना तैयार है। सब हाथ-मुँह धो कर खाने की टेबल पर पहुँच गए।
शाकिर साहब इस मशक़्क़त से काफ़ी थक गए थे उसके बावजूद उन्होंने सामान को पैक करवाने में नसरीन की मदद की। नसरीन ने अपनी और शाकिर साहब की ज़रूरी चीज़ें एक बड़े बैग में भर ली थीं। दूसरे बैग में उसने रिश्तेदारों को देने वाली मुख़्तलिफ़ अशिया रख लीं। उधर बच्चे अपनी तैयारी में लगे हुए थे। कौन-कौन से कपड़े ले जाने हैं और कौन-कौन से जूते। उन्हें जो जेब ख़र्च मिला करता था वो उसमें से कुछ पैसे बचा भी लेते थे और उनको अलग-थलग एक जगह रखते थे। उन्होंने ये सोच कर उन पैसों को भी अपने-अपने बैगों में रख लिया कि वहाँ घूमने-फिरने के दौरान काम आएँगे।
सारे दिन की मशक़्क़त से शाकिर साहब काफ़ी थक गए थे इसलिए उन्होंने रात का खाना भी जल्द खा लिया और सोने के लिए लेट गए। अगली सुबह सब मुँह अंधेरे ही उठ गए थे। इधर सूरज निकला और उधर उनकी रवानगी अमल में आई। नसरीन ने पास पड़ोस में रहने वालों से कह दिया था कि वो एक हफ़्ते के लिए रिश्तेदारों से मिलने जा रहे हैं, इसलिए वो उनके घर का ख़्याल रखें।
गर्मियाँ शुरू हो गई थीं मगर मौसम ख़ुश-गवार था क्यों कि आसमान पर काले-काले बादलों का डेरा था। बच्चे तो बादल देख कर बहुत ख़ुश हुए मगर शाकिर साहब को तशवीश हो गई। उन्हें ये ख़्याल परेशान करने लगा कि अगर रास्ते में बारिश हो गई तो मुसीबत आ जाएगी। बच्चों का साथ है, अगर इंजन में पानी चला गया और गाड़ी ख़राब हो गई तो क्या होगा। उनके चेहरे पर छाई हुई परेशानी देख कर नसरीन ने पूछा, “क्या बात है? आप यका-यक परेशान नज़र आने लगे हैं... ख़ैरियत तो है?”
शाकिर साहब फ़िक्रमंदी से बोले, “ख़ैरीयत तो है बस बादलों को देख कर मैं सोच रहा हूँ कि बारिश शुरू न हो जाए। दूर का मुआमला है... गाड़ी ख़राब हो गई तो हम बच्चों के साथ परेशान हो जाएँगे।”
“अल्लाह ने चाहा तो ऐसा कुछ भी नहीं होगा। नसरीन ने उनको तसल्ली दी। फिर सफ़र भी कौन सा ज़्यादा लंबा है। तीन-चार घंटे में हम लोग वहाँ पहुँच जाएँगे। वैसे भी नई सड़कों के बन जाने से बड़ी आसानी हो गई है। पहले देखा नहीं था सड़कें कितनी ख़राब थीं।”
शाकिर साहब कुछ न बोले। सब लोग गाड़ी में बैठ गए तो उन्होंने गाड़ी चला दी। आक़िब और फ़हद अपने मोबाइलों पर कार्टून देखने लगे। आक़िब अगली सीट पर बैठा था। फ़हद, हानिया और नसरीन पिछली सीट पर थे। हानिया नसरीन की गोद में सर रख कर लेट गई। सुबह जल्दी उठने की वजह से उसकी नींद पूरी नहीं हुई थी इसलिए वो जल्द ही सो गई।
सफ़र बहुत अच्छे तरीक़े से जारी था। उन्होंने तक़रीबन सौ किलो मीटर का फ़ासला तय कर लिया था कि अचानक एक ज़ोरदार धमाका हुआ। नसरीन का दिल धक से रह गया। वो दुरूद शरीफ़ पढ़ने लगी। हानिया को उसने ख़ुद से चिमटा लिया था। आक़िब और फ़हद बिलकुल भी हिरासाँ नहीं हुए थे। वो समझ गए थे कि गाड़ी का टायर फटा है। शाकिर साहब ने बड़ी महारत से तेज़-रफ़्तार गाड़ी को क़ाबू में किया था, क्यों कि टायर के फटते ही वो इधर-उधर डोलने लगी थी। उन्होंने सड़क पर नज़र जमाए-जमाए तेज़ आवाज़ में कहा, “बेगम! घबराना नहीं! गाड़ी का टावर फटा है।”
फिर उन्होंने गाड़ी को सड़क के किनारे लगा कर खड़ा कर दिया और ख़ुद गाड़ी से उतर गए।
आक़िब और फ़हद भी गाड़ी से बाहर निकल आए थे। शाकिर साहब फ़ालतू पहिया निकालने के लिए डिग्गी की जानिब बढ़े ही थे कि उनका दिमाग़ भक से उड़ गया। उन्हें याद आ गया कि उन्होंने कल शाम टायर में पंक्चर तो लगवाया ही नहीं था। उन्हें एक चक्कर सा आया और वो गाड़ी की छत से सर टिका कर खड़े हो गए। उनकी ये हालत नसरीन ने देखी तो वो हल्की सी चीख़ मार कर जल्दी से नीचे उतरी। “क्या हुआ है आपको? पानी दूँ?”
शाकिर साहब ने सर उठा कर फीकी सी मुस्कुराहट के साथ कहा, “मैं तो आक़िब और फ़हद से भी गया गुज़रा हूँ। तुम दोनों को समझाती रहती हो कि अभी का काम बा'द पर मत छोड़ा करो। तुम्हारी नसीहत पर अमल कर के वो तो ज़िम्मेदार बच्चे बन गए हैं। मैं वैसे का वैसा ही रहा।”
“कुछ बताएँगे भी या पहेली ही बुझवाते रहेंगे? साफ़-साफ़ बताइए ना क्या हुआ है?” नसरीन की समझ में उनकी बातें नहीं आ रही थीं।
“क्या बताऊँ बेगम... कल दफ़्तर से आते हुए एक टायर पंक्चर हो गया था। मैंने सोचा कि शाम को पंक्चर लगवा लूँगा, घर के नुक्कड़ पर ही तो दुकान है। मगर फिर भूल गया। मेरी ज़रा सी ग़फ़लत ने कितनी परेशानी खड़ी कर दी है। हम इतनी दूर निकल आए हैं कि तुम लोगों को वापस भी नहीं भेज सकता। बादल सर पर खड़े हैं। फिर ये इलाक़ा भी सुनसान है। सुना है कि यहाँ मुसाफ़िर बसों को रोक कर लूट-मार भी बहुत होती है। मैं भी कितना ग़ैर ज़िम्मेदार हूँ, मेरी ग़ैर-ज़िम्मेदारी ने ये मुसीबत खड़ी कर दी है। बच्चे सुनेंगे तो क्या कहें-सोचेंगे कि उनका बाप ऐसा है।”
उसी वक़्त आक़िब और फ़हद गाड़ी के पीछे से निकल आए। आक़िब बोला, “अब्बू... अब्बू... हम आपको एक चीज़ दिखाना चाहते हैं। आप देखेंगे तो हैरान रह जाएँगे।”
इतने संजीदा मुआमले में आक़िब की ये बे-वजह मुदाख़िलत नसरीन को बहुत बुरी लगी थी। उसने ग़ुस्से से कहा, “आक़िब कुछ शर्म करो। हम एक मुसीबत में पड़े हुए हैं और तुम अपनी बातों में लगे हो। जानते हो हमारे साथ क्या हुआ है?”
“जी अम्मी, हमारी गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया है।” आक़िब ने सर झुका कर बड़े अदब से कहा।
“फिर भी तुम्हें खेल सूझ रहा है।” नसरीन, जो सच-मुच परेशान थी... तिलमिला कर बोली।
“अम्मी, आप ग़लत समझी हैं। हम तो अब्बू को एक ऐसी चीज़ दिखाना चाहते थे कि उसे देख कर अब्बू ख़ुशी से उछल पड़ते।” आक़िब फिर बोला।
फ़हद खड़ा मुस्कुरा रहा था। नसरीन ने फ़हद को मुस्कुराते हुए देख लिया था इसलिए और भी जल गई। “तुम दोनों ही बहुत बदमाश हो गए हो। तुम लोग अभी इतने-इतने से हो, अम्मी-अब्बू परेशान हैं और तुम लोगों को हंसी आ रही है।”
नसरीन की ये बात सुन कर फ़हद जो पहले सिर्फ़ मुस्कुरा रहा था अब हंस-हंस कर लोट-पोट हो गया।
इस हरकत पर तो शाकिर साहब को भी ग़ुस्सा आ गया। फ़हद ये क्या हरकत है। पागल हो गए हो क्या? उन्होंने तैश में आ कर चिल्ला कर कहा।
शाकिर साहब के चिल्लाने से फ़हद सहम गया था और ख़ामोशी से सर झुका कर खड़ा हो गया। शाकिर साहब को एहसास हुआ कि उनसे ज़्यादती हुई है, उन्हें फ़हद पर चिल्लाना नहीं चाहिए था। उन्होंने उससे कहा, “फ़हद, बेटा तुम नहीं जानते कि हम इस क़दर परेशानी में मुबतला हो गए हैं। हम इस वीराने में खड़े हैं और हमारी गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया है। अपनी ग़फ़लत की वजह से मैं ख़राब टायर में पंक्चर भी नहीं लगवा सका।”
“ये ही तो हम आपको बताना चाह रहे हैं कि रात उस टायर में हमने पंक्चर लगवा लिया था।” आक़िब आगे बढ़ कर जल्दी से बोला।
“क्या कह रहे हो?” शाकिर साहब ने उसे बे-यक़ीनी से देखते हुए कहा।
“जी अब्बू हम ठीक कह रहे हैं। आप रात को जल्दी सो गए थे हालाँकि आपने कहा था कि शाम को टायर में पंक्चर लगवाने जाना है। मैंने और फ़हद ने चुपके से डिग्गी खोली और टायर निकाल कर उसे हाथों से चलाते हुए कोने वाली दुकान पर ले गए और उसमें पंक्चर लगवा लिया। आप चूँकि सो रहे थे इसलिए हमने सोचा कि ये बात आपको सुबह बता देंगे मगर सुबह हम भूल गए।”
आक़िब की ये बात सुन कर शाकिर साहब पहले तो मुस्कुराए, फिर हँसे और इसके बा'द उन्होंने इतने ज़ोर का क़हक़हा लगाया कि गाड़ी में सोई हुई हानिया घबरा कर उठ बैठी और खिड़की से बाहर झाँकने लगी। नसरीन ख़ुद हक्का-बक्का खड़ी थी। चंद लम्हे तक तो वो सोचती ही रही कि हुआ क्या है, फिर जब उसकी समझ में सारी बात आ गई तो उसने एक हाथ आक़िब के गले में और दूसरा फ़हद के गले में डाला और बड़े प्यार से बोली, “शुक्रिया बच्चो। तुमने अपने अब्बू और अम्मी को एक बहुत बड़ी परेशानी से निजात दिलाई है। घर चलो तुम्हारा इन'आम पक्का है”
आक़िब ने कहा, “सॉरी अम्मी, हमें इन'आम नहीं चाहिए। मेरे और फ़हद के इस काम से आपको और अब्बू को जो ख़ुशी हुई है वो ही हमारा सबसे बड़ा और क़ीमती इन'आम है।”
उसकी बात सुन कर शाकिर साहब अपने दिल में एक अजीब सा फ़ख़्र महसूस कर रहे थे। उन्हें इस बात पर ख़ुशी थी कि घर और स्कूल की अच्छी तर्बियत ने उनके बच्चों को कितना अच्छा और ज़िम्मेदार बना दिया है। बच्चे जब कोई अच्छा काम करते हैं तो कोई उनके माँ-बाप के दिल से पूछे कि उन्हें कितनी ख़ुशी होती है और उनके दिल से अपने बच्चों के लिए कितनी दुआएँ निकलती हैं। थोड़ी ही देर में टायर तब्दील हो गया था और वो सब ख़ुश-ख़ुश दुबारा अपनी मंज़िल की तरफ़ रवाना हो गए।
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