मैं छोटा सा इक लड़का हूँ
मेरी उम्र छः माह है। मेरा नाम माँ-बाप ने अल्लाह जाने क्या रखा है। शायद ख़ुद उनको भी याद न हो क्योंकि सब लोग मुझे अजीब-अजीब नामों से पुकारते हैं। कोई बबलू कहता है, कोई पप्पू और कोई गुड्डू तो कोई लड्डू। अल्लाह जाने इन बड़ों को नाम बिगाड़ने में क्या मज़ा मिलता है। शायद वो समझते हैं कि इस तरह प्यार का इज़हार होता है। अजीब-ओ-ग़रीब नामों से पुकारने के अलावा ये बड़े मेरे सामने उल्टी-सीधी हरकतें भी करते हैं।
कभी कोई बुज़ुर्ग गाल फुला कर और भवें उचका कर मुझे हंसाने की कोशिश करते हैं और कभी कोई साहब
कुत्ते-बिल्लियों की आवाज़ें निकालते हैं। कुछ हज़रात मुझे बहलाने के लिए उछल-कूद से भी बाज़ नहीं आते।
एक हज़रत ने तो एक दफ़ा हद ही कर दी। मुझे रोता हुआ पा कर वो सर के बल खड़े हुए। मुझे उनकी इस ऊट-पटाँग हरकत पर बे-साख़्ता हंसी आ गई। उधर वो हज़रत बहुत ख़ुश हुए कि देखा मैंने रोते बच्चे को चुप करा दिया। वो कई रोज़ तक अपने दोस्तों में इस बात का चर्चा करते रहे।
कुछ बड़े, हम छोटे बच्चों को झूट-मूट तोतली ज़बान में “पाला पाला बत्ता” यानी प्यारा-प्यारा बच्चा कह कर बहुत ख़ुश होते हैं। मुम्किन है कुछ छोटे बच्चों को इस पर हंसी आती हो लेकिन में इस पर बहुत हैरान होता हूँ कि एक समझ-दार और माक़ूल आदमी को जान-बूझ कर तोतला बनने की क्या ज़रूरत है? लाहौल वला क़ुव्वत।
मैं तो दिन रात उन बड़ों के तमाशे देखता हूँ और अपना सर पीटता हूँ कि इतने बड़े हो गए मगर रहे वही घामड़ के घामड़। ऐसे लोगों में हमारे भाई जान ख़ास तौर पर शामिल हैं। मौसूफ़ ख़ैर से पाँच साल के हैं। ऊँट जितने लंबे हो गए हैं मगर हरकतें वही बच्चों वाली हैं। मेरी तो जान जल जाती है कि या अल्लाह इनको कब तमीज़ आएगी।
मिसाल के तौर पर कल का ज़िक्र है कि यूँ ही लेटे-लेटे मेरा दिल ज़रा रोने को चाहा। हाँ साहब... आख़िर मैं भी इन्सान हूँ। मेरा दिल भी रोने को चाहता है। लेटे-लेटे थक जाता हूँ। पड़े-पड़े बोर हो रहा था। इन लोगों से इतना भी नहीं होता कि कोई अख़बार या रिसाला ही मुझे थमा दें। दो घड़ी तस्वीरें देखूँगा तो जी बहला रहेगा। लेकिन ख़ैर... हाँ तो मैं क्या कह रहा था? ख़ूब याद आया, लेटे-लेटे थक गया तो रोने को जी चाहा। हल्के सुरों में ग़ूँ ग़ाँ शुरू की। मेरा ख़्याल था कि घर में इतने लोग हैं, कोई न कोई तवज्जो करेगा, लेकिन किसी ने ध्यान न दिया। अब मुझे ज़रा बेचैनी होने लगी। मैंने अपनी आवाज़ ऊँची कर दी और उसमें हल्की-हल्की चीख़ें शामिल कर दीं। लेकिन तौबा कीजिए जो किसी के कान पर जूँ तक रेंगी हो।
घर के ज़्यादा तर लोग इस तरह टीवी देखने में लगे हुए थे जैसे वही दुनिया का सबसे अहम काम हो। अब्बू अलबत्ता अख़बार में खोए हुए थे और भाई जान क़िबला चशम-ए-बद्दूर मुर्ग़ियों की दुम खींचने और बकरियों के कान एँठने से फ़ारिग़ हों तो नन्हे भाई की ख़बर लें। आख़िर मुझे अपनी आवाज़ टीवी की आवाज़ के बराबर करनी पड़ी।
चंद लम्हों बाद मेरी आवाज़ टीवी की आवाज़ से भी बुलंद हो गई और उसमें हौल-नाक चीख़ें भी शामिल हुईं, तब कहीं जा कर किसी को होश आया कि शायद मुन्ना रो रहा है। पूछिए, इस “शायद” पर मुझे कितना ग़ुस्सा आया। यहाँ चिल्लाते चिल्लाते गले में ख़राशें पड़ गईं और वहाँ अभी तक शुबा ही है कि कोई रो रहा है। क्या ख़ूब, मैं कोई गाने की मश्क़ कर रहा था या रेडियो पर फ़र्माइशी प्रोग्राम नश्र कर रहा था। वो तो अल्लाह भला करे बेचारी अम्मी का। बावर्ची-ख़ाने से दौड़ी-दौड़ी आईं और मुझे फ़ौरन बाँहों में उठा कर चुप कराने लगीं।
आप तो जानते हैं कि अम्मी की गोद में थोड़ा सा रो लिया जाए तो बड़ा फ़ायदा होता है। चुमकारने-पुचकारने के अलावा दूध या बिस्कुट मिलने का भी पूरा-पूरा इमकान रहता है। जी हाँ, मैं सही अर्ज़ कर रहा हूँ। शर्माइए नहीं, आप ख़ुद भी यही करते रहे हैं। अब बड़े हो गए हैं तो क्या हुआ।
तो जनाब अल्लाह आपका भला करे, मैंने ज़रा देर चुप रह कर फिर तानें उड़ानी शुरू कीं। ईं ईं ईं... रीं रीं रीं...
इस पर अम्मी जान ने मुझे भाई जान के हाथों में थमाया और ख़ुद बिस्कुट लेने चली गईं। जी आपने बिलकुल सही पहचाना। ये हमारे वही भाई जान हैं जिनका ज़िक्र हो चुका है। ये पाँच साल के हो चुके हैं मगर अभी तक चाँद को बर्फ़ी का टुकड़ा या बताशा समझते हैं। उन्होंने मुझे गोद में इस तरह दबोच लिया जैसे में कोई फ़ुटबाल हूँ। ज़ाहिर है कि हर शरीफ़ आदमी अपने आपको ऐसी हालत में पा कर शोर मचाता है। इसलिए मैंने भी शोर करना शुरू कर दिया। इस पर वो हज़रत मुझे आपा के पास बिठा कर ख़ुद हवा हो गए।
अब आपा का जी टीवी में अटका हुआ था, वो मुझे क्या देखतीं, ख़ाक। टीवी देखने से ही फ़ुर्सत न थी। आपा ने मुझे सर पर आई बला समझ कर टालना चाहा और फ़र्श पर बिठा दिया। इतना भी ख़्याल न किया कि मैं ज़रा सा बच्चा हूँ, गिर गया तो चोट लगेगी, जब कि मैंने अभी पूरी तरह बैठना भी नहीं सीखा था। आख़िर वही हुआ जिसका डर था, यानी मैं धड़ाम से गिर पड़ा और इतनी ज़ोर से रोना शुरू किया कि सब घबरा गए।
कहाँ तो ये लोग मुझे देखते ही न थे और कहाँ सब कुछ छोड़-छाड़ कर मेरे पास जमा हो गए। काश ये मेरे गिरने से पहले ऐसा करते लेकिन बड़े जो ठहरे। ख़ैर साहब, अब इन लोगों के दरमयान मुझे चुप कराने का मुक़ाबला शुरू हो गया। चाचा जी क्रिकेट के बहुत अच्छे खिलाड़ी रह चुके हैं। उन्होंने मुझे चुप कराने के लिए क्रिकेट की गेंद की तरह हवा में उछालना और कैच करना शुरू कर दिया, मगर एक छः माह के बच्चे और क्रिकेट की गेंद में बड़ा फ़र्क़ होता है। अगर मैं गिर जाता तो मेरा सर इस तरह खुल जाता है जैसे तरबूज़ की फाँकें रखी हूँ और चूँ कि मैं अपने सर को तरबूज़ की फाँकें बनाना पसंद नहीं करता इस लिए ख़तरा भाँप कर हल्क़ फाड़-फाड़ कर रोने लगा। अब सब लोग घबरा गए और लगे औंधी-सीधी हरकतें करने। कोई मुँह से तरह-तरह की आवाज़ें निकाल रहा है तो कोई बंदरों की नक़्ल उतार रहा है। किसी ने तालियाँ बजानी शुरू कर दीं और कोई अपनी भद्दी आवाज़ में लोरियाँ गाने लगा।
एक छोटा बच्चा... जिसे चोट लगी है और जो डर गया है उसे चुप कराने का भला ये कौन सा तरीक़ा है कि सब मिल कर शोर मचाने लगें।
रोते-रोते मेरी हिचकियाँ बंध गईं। नाक से पानी बहने लगा। आपा को कुछ और न सूझा तो उन्होंने हमदर्द नौनिहाल का ख़ास नंबर उठा कर मेरी नाक के आगे नचाना शुरू किया। मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि मत पूछिए। वैसे अगर मैं आपा का कोई रिसाला उठा लूँ तो वो चिल्लाने लगती हैं कि “हाएँ हाएँ फाड़ डालेगा!”
इन्सान दो घड़ी दिल बहलाने के लिए कोई रिसाला भी न देखे? आपा रिसाला मेरे हाथ से छीन कर मुझे रोता हुआ छोड़ कर जाया करती हैं और ये वही आपा थीं कि अब मैं रो रहा था तो मुझे रिसाला थमा रही थीं। अल्लाह जाने इन बड़ों की अक़्लों को क्या हो जाता है। ये छोटों को रुलाए बग़ैर कोई चीज़ नहीं देते। अगर कोई चीज़ बच्चों को देने की नहीं है तो हरगिज़ नहीं देनी चाहिए। चाहे बच्चा हँसे या रोए या गाए।
अम्मी... जो मेरे लिए बिस्कुट लेने गई थीं शायद किसी काम में उलझ गई थीं। फ़ौरन भागी-भागी आईं और वही किया जो करना चाहिए था। यानी मुझे लिपटा लिया और प्यार करने लगीं। मेरा सर सहलाया और मुझे सहन में ले गईं। परिंदे दिखाने लगीं और मेरे हाथ में बिस्कुट दे दिया। मैं सब कुछ भूल कर परिंदों को देखने लगा और अपने पोपले मुँह में बिस्कुट रख कर चूसने लगा।
उधर वो सब के सब दुबारा अपने उन्ही कामों में इस तरह लग गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। ये वही लोग थे जो मुझे चुप कराने के लिए सौ-सौ जतन कर रहे थे और अब ऐसे बन गए थे जैसे मुझे जानते ही न थे।
अब आप ही बताईए कि उसे क्या कहा जाए? ये कैसे बड़े हैं? ये सिर्फ़ रोते बच्चों का ख़्याल क्यों रखते हैं? क्या इन्हें हंसते-मुस्कुराते किलकारियाँ मारते बच्चे पसंद नहीं? आप भी तो कहीं ऐसे बड़ों में शामिल नहीं हैं? कहीं आप मेरे भाई जान या आपा जैसे तो नहीं? आपका कोई छोटा भाई या छोटी बहन है?
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